धार्मिक कहानियाँ - दोस्तों, आज की इस पोस्ट में हम धार्मिक कहानियाँ लेकर आये है। दोस्तों इन कहानियाँ आपको बहुत कुछ सिखने को मिलेगा। उम्मीद है कि आपको यह कहानियाँ पसंद आयेगी।
Dharmik Stories in Hindi List
भगवान भावनाओं को महत्व देखते है
पर्स में शिव जी का तस्वीर क्यों था
नारद ने दिया ध्रुव को नारायण मंत्र
भगवान श्री कृष्ण और रुक्मिणी की भक्ति
बूढा चोर और बाबा के उपदेश का परिणाम
गणेश चतुर्थी की कहानी
एक बार की बात है सभी देवता बहुत ही मुश्किल में थे।
सभी देव गण शिवजी के शरण में अपनी मुश्किलों के हल के लिए पहुंचे। उस समय भगवान शिवजी के साथ गणेश और कार्तिकेय भी वहीँ बैठे थे।
देवताओं की मुश्किल को देखकर शिवजी नें गणेश और कार्तिकेय से प्रश्न पुछा – तुममें से कौन देवताओं की मुश्किलों को हल करेगा और उनकी मदद करेगा।
जब दोनों भाई मदद करने के लिए तैयार हो गए तो शिवजी नें उनके सामने एक प्रतियोगिता रखा।
इस प्रतियोगिता के अनुसार दोनों भाइयों में जो भी सबसे पहले पृथ्वी की परिक्रमा करके लौटेगा वही देवताओं की मुश्किलों में मदद करेगा।
जैसे ही शिवजी नें यह बात कही – कार्तिकेय अपनी सवारी मोर पर बैठ कर पृथ्वी की परिक्रमा करने चले गए।
परन्तु गणेश जी वही अपनी जगह पर खड़े रहे और सोचने लगे की वह मूषक की मदद से पुरे पृथ्वी का चक्कर कैसे लगा सकते हैं? उसी समय उनके मन में एक उपाय आया।
वे अपने पिता शिवजी और माता पारवती के पास गए और उनकी सात बार परिक्रमा करके वापस अपनी जगह पर आकर खड़े हो गए।
कुछ समय बाद कार्तिकेय पृथ्वी का पूरा चक्कर लगा कर वापस पहुंचे और स्वयं को विजेता कहने लगे।
तभी शिवजी नें गणेश जी की ओर देखा और उनसे प्रश्न किया – क्यों गणेश तुम क्यों पृथ्वी की परिक्रमा करने नहीं गए?
तभी गणेश जी ने उत्तर दिया – “माता पिता में ही तो पूरा संसार बसा है?” चाहे में पृथ्वी की परिक्रमा करूँ या अपने माता पिता की एक ही बात है।
यह सुन कर शिवजी बहुत खुश हुए और उन्होंने गणेश जी को सभी देवताओं के मुश्किलों को दूर करने की आज्ञा दी। साथ ही शिवजी नें गणेश जी को यह भी आशीर्वाद दिया कि कृष्ण पक्ष के चतुर्थी में जो भी व्यक्ति तुम्हारी पूजा और व्रत करेगा उसके सभी दुःख दूर होंगे और भौतिक सुखों की प्राप्ति होगी।
गणेश जी के टूटे दांत की कहानी
जब महर्षि वेदव्यास महाभारत लिखने के लिए बैठे, तो उन्हें एक ऐसे व्यक्ति की जरूरत थी जो उनके मुख से निकले हुए महाभारत की कहानी को लिखे।
इस कार्य के लिए उन्होंने श्री गणेश जी को चुना। गणेश जी भी इस बात के लिए मान गए पर उनकी एक शर्त थी कि पूरा महाभारत लेखन को एक पल ले लिए भी बिना रुके पूरा करना होगा।
गणेश जी बोले – अगर आप एक बार भी रुकेंगे तो मैं लिकना बंद कर दूंगा।
महर्षि वेदव्यास नें गणेश जी की इस शर्त को मान लिया।
लेकिन वेदव्यास ने गणेश जी के सामने भी एक शर्त रखा और कहा – गणेश आप जो भी लिखोगे समझ कर ही लिखोगे।
गणेश जी भी उनकी शर्त मान गए। दोनों महाभारत के महाकाव्य को लिखने के लिए बैठ गए। वेदव्यास जी महाकाव्य को अपने मुहँ से बोलने लगे और गणेश जी समझ-समझ कर जल्दी-जल्दी लिखने लगे। कुछ देर लिखने के बाद अचानक से गणेश जी का कलम टूट गया। कलम महर्षि के बोलने की तेजी को संभाल ना सका।
गणेश जी समझ गए की उन्हें थोडा से गर्व हो गया था और उन्होंने महर्षि के शक्ति और ज्ञान को ना समझा। उसके बाद उन्होंने धीरे से अपने एक दांत को तोड़ दिया और स्याही में डूबा कर दोबारा महाभारत की कथा लिखने लगे।
जब भी वेदव्यास को थकान महसूस होता वे एक मुश्किल सा छंद बोलते, जिसको समझने और लिखने के लिए गणेश जी को ज्यादा समय लग जाता था और महर्षि को आराम करने का समय भी मिल जाता था।
महर्षि वेदव्यास जी और गणेश जी को महाभारत लिखने में 3 वर्ष लग गए।
असुरों के हितैषी नारद
इस ब्रह्माण्ड में कहीं कोई बात हो और वह नारद जी के कानों में पड़ जाए और उसका प्रचार न हो, यह कदापि संभव नहीं है।
उन्हें तो संचार तंत्र का आदि गुरु कहना अधिक उपयुक्त होगा।
बैकुण्ठलोक से चलकर नारद जी सीधे मथुरा के राजा अत्याचारी कंस के पास पहुंचे। कंस ने नारद जी का समुचित आदर-सत्कार किया और उनके दर्शनों के लिए आभार प्रकट किया। कुछ पल शांत रहने के बाद नारद जी ने कंस से कहा - राजन! अब अत्याचार करना बंद कर दो, क्योंकि तुम्हारा वध करने के लिए तुम्हारी बहन देवकी के गर्भ से आठवीं संतान के रूप में स्वयं नारायण अवतार लेने वाले हैं।
यह सुनकर कंस क्रोधित होकर बोला - यदि ऐसा हुआ तो मैं अपनी बहन देवकी को ही मार डालूंगा।
नारद जी ने उसे समझाते हुए कहा - राजन! मूर्खता मत करो। अभी से बहन की हत्या पाप अपने सिर पर क्यों लेते हो ? व्यर्थ में लोक निंदा के पात्र बनने से क्या लाभ ? जब आठवाँ बालक होगा, तब उसका चुपके से वध कर देना। सभी बालकों को मारने से तुम्हें पाप लगेगा।
ठीक है देवर्षि! आप जैसा कहते हैं मैं वैसा ही करूंगा। कंस ने उत्तर दिया। लेकिन उसी समय कंस के मन में नारद जी ने शंका और डाल दी।
उन्होंने एक कमल का फूल मांगकर उसे दिखते हुए कहा - राजन! इस कमल के फूल को देखिए, इसकी पंखुड़ियों को कहीं से भी गिना जा सकता है। फिर यह कैसे पता चलेगा कि देवकी का कौन-सा पुत्र आठवां होगा ?
यह सुनकर कंस सोच में पड़ गया, यह तो आप ठीक कहते हैं नारद जी। फिर तो मुझे देवकी के सारे बच्चों को मरवाना होगा।
नारद जी ने उसे चेतवानी देते हुए कहा - मरवाना नहीं मारना होगा।
दूसरे पर भरोसा करना ठीक नहीं है राजन। जो काम करो, अपने हाथों से करना। क्या पता कहीं चूक हो जाए तो फिर तुम्हें पछताना पड़ेगा ?
एक बार यदि देवकी की आठवीं संतान का जन्म हो गया तो फिर तुम्हें कोई नहीं बचा सकेगा ?
कंस बोला - आप ठीक कहते हैं देवर्षि! आप मेरे हितैषी हैं। मेरे ही क्या समस्त असुरों के आप हितैषी हैं तभी तो हम सभी आपको इतना मान करते हैं।
नारायण-नारायण ठीक कहते हो राजन! नारद तो सबका भला चाहता है। लोक-कल्याण ही मेरा लक्ष्य है और समय रहते सबको सचेत रहना मेरा धर्म है। कहते हुए नारद जी वहां से विदा हो गए।
नारद जी के उकसाने पर कंस ने देवकी के छः बालकों की निर्मम हत्या कर डाली। उसके पापों का घड़ा भरता चला गया। भगवान विष्णु के आदेश से योगमाया ने देबकी के सातवें गर्भ को रोहिणी की कोख में स्थापित कर दिया और देवकी के गर्भपात की सूचना कंस को दे दी गई। रोहिणी के गर्भ से बालक 'बलराम' का जन्म हुआ।
देवकी के आठवें गर्भ में स्वयं नारायण अवतरित हुए।
तब योगमाया ने गोकुल गाँव की गोपी यशोदा की नवजात पुत्री से देवकी के पुत्र को बदल दिया। वासुदेव नेयह कार्य स्वयं किया।
आठवीं संतान पुत्री के रूप में देखकर क्रूर कंस ने निर्ममता पूर्वक उस कन्या को पत्थर की शिला पर पटकना चाहा, लेकिन वह बिजली की तरह चमकी और आकाश में दुर्गा के रूप में प्रकट होकर बोली - अरे दुर्बुद्धि कंस! तू अकारण मुझ बालिका का वध करना चाहता था। तुझे मरने देवकी का आठवां पुत्र जन्म ले चुका है। अब स्वयं काल भी तुझे नहीं बचा पाएगा।
आकाशवाणी सुनकर कंस आग-बबूला हो गया। उसने अपने सहकर्मी प्रलंभ और केशी दैत्यों को बुलाकर उसी दिन जन्मे अपने राज्य के सभी बालकों को मार डालने का आदेश दे दिया। परन्तु वह यशोदा की गोद में खेल रहे बाल कृष्ण तक नहीं पहुंच पाया।
कंस द्वारा किए गए तरह-तरह के उपाय भी कृष्ण को, स्वयं नारायण के अवतार थे, कोई क्षति नहीं पहुंचा सके। धीरे-धीरे श्रीकृष्ण और अवतार थे, कोई क्षति नहीं पहुँचा सके।
धीरे-धीरे श्रीकृष्ण और बलराम जी किशोरी अवस्था में पहुंचे और जब कंस के अत्याचार बहुत बढ़ गए, तब श्रीकृष्ण ने अत्याचारी कंस को सिंहासन से खींच कर मार डाला।
आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी और वाद्ययंत्र बज उठे नारद जी ने भी वीणा पर स्वरों को छेड़ते हुए अपने आराध्य देव श्री नारायण का स्तुति गान किया।
नारद का शूद्र रूप में जन्म
कान्यकुब्ज में द्रुमिल नाम का एक शूद्र रहता था।
उसकी पत्नी कलावती बांझ होने पर भी पतिव्रता थी। उसके बांझपन का कारण उसके पति में दोष होना था।
एक बार उसके निवास क्षेत्र के समीप महातपस्वी कश्यप जी का शुभ आगमन हुआ तो द्रुमिल ने अपनी पत्नी को महर्षि कश्यप से गर्भाधान कराने का आदेश दिया।
पति की अनुमति से कलावती प्रसन्न मन से कश्यप के समीप गई, परन्तु कश्यप जी के तेज को न सह पाने के कारण वह दूर ही खड़ी रही, उनके निकट न जा सकी।
मुनि ने कामपीड़ित कलावती को अपने आश्रम के निकट देखा तो उससे उसका परिचय और वहाँ आने का प्रयोजन पूछा।
कलावती ने अत्यंत विनम्र स्वर में अपना परिचय देते हुए अपने आने का उद्देश्य पुत्र प्राप्ति की कामना को बताया।
कलावती ने यह भी निवेदन किया कि रति-याचना करने वाली स्त्री को निराश करने से पुरुष को बहुत दोष लगता है।
इसके अतिरिक्त जिस प्रकार अग्नि को कोई दोष नहीं लगता, उसी प्रकार समर्थ पुरुष के लिए कुछ भी अनुचित नहीं होता। कलावती के अनुचित प्रस्ताव को सुनकर महर्षि कश्यप ने उसकी भर्त्सना की और शूद्र पत्नी से रमण करने से ब्राह्मण के चाण्डाल बन जाने के विधान की ओर संकेत करते हुए उसकी प्रार्थना अस्वीकार कर दी।
कश्यप जी ने अपनी स्त्री को परपुरुष की अंकशायिनी बनने की अनुमति देने के लिए द्रुमिल को भी अपशब्द कहे। इसी बीच कश्यप जी ने मेनका को आकाश मार्ग से जाते देखा तो उसके रूप को देखकर ही मुनि का वीर्यपात हो गया।
कलावती ने वह पान कर लिया और पति के समीप जाकर सारा वृत्तांत यथावत कह सुनाया। द्रुमिल ने ब्रह्मवीर्य की यत्न से रक्षा करने और समय पर वैष्णव पुत्र उत्पन्न करने का निर्देश कलावती को दिया।
द्रुमिल अपनी वंश वृद्धि की संभावना से संतुष्ट होकर बदरीबन में चला गया और वहाँ तपश्चरण करते हुए प्राण त्याग दिए। कलावती को जब पति की मृत्यु का पता चला तो वह सती होने को उद्यत हो गई।
जब वह रोते हुए सती होने जा रही थी उसी समय रास्ते में उसे एक ब्राह्मण मिले। ब्राह्मण ने रोती जा रही कलावती को रोककर पूछा कि क्यों रो रही हो, कहां जा रही हो?
उसके पति ने तो तपस्या करते हुए प्राण त्यागे हैं परंतु वह क्या करने जा रही है?
अपने साथ एक गर्भ में पलने वाले शिशु की हत्या करने का उसे कोई हक नहीं है।
उसी ब्राह्मण ने कलावती को अपने यहां शरण दे दिया साथ ही उसे गर्भ की रक्षा करने का निर्देश भी दिया। यथा समय ब्राह्मण के घर में ही कलावती ने अत्यंत तेजस्वी, सुन्दर एवं गुणी पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम नारद रखा गया।
पाँच वर्ष का होने पर बालक को पूर्वजन्म की स्मृति हो गई और वह श्रीकृष्ण के मंत्र का जाप, भजन तथा उनके पुण्य कथाओं का श्रवण करने लगा। खेलकूद में ही बालक नारद श्री कृष्ण की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर पूजा करने लगा।
जब माँ उसे बुलाती तो बालक यही उत्तर देता कि पूजा से निवृत होकर आ जाऊंगा। इस प्रकार ब्राह्मण के घर बालक उत्तरोत्तर बढने लगा।
ब्राह्मण कलावती को अपनी पुत्री मानकर उसका और उसके बालक का यथोचित पालन-पोषण करने लगा।
एक दिन ब्राह्मण के घर पंचवर्षीय चार तेजस्वी ब्राह्मण बालक आए तो गृहस्थ ब्राह्मण ने अभ्यागतों का मधुपर्क आदि से यथोचित स्वागत-सत्कार किया और प्रणाम करके उन्हें फल-पुष्पादि अर्पित किए। चारों ने स्वेच्छा से कुछ फल खाए और शेष फल उस बालक[नारद ] को दे दिए।
उनमें से एक बालक को भगवान श्रीकृष्ण का मंत्र दिया और बालक ने माता की आज्ञा से उनका शिष्यत्व ग्रहण किया।
एक बार रात्रि के समय जब बालक नारद की माता मार्ग से निकल रही थी तो उसे सांप ने काट लिया और वह श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए उसी समय मृत्यु को प्राप्त हो गई।
प्रातःकाल बालक नारद को अपनी माँ के अवसान का पता चला तो उस समय ब्राह्मण ने उसे तत्वज्ञान का उपदेश दिया, जिससे उसका....अज्ञान जाता रहा और वह गंगा जी में स्नान करके गंगावट के निर्जन स्थान पर अवस्थित अश्वत्थ[पीपल ]के मूल के समीप योगासन लगा कर भगवान श्रीकृष्ण का भजन करने लगा।
जब दिव्य सहस्र वर्ष व्यतीत हो गए तो उसे भगवान श्रीकृष्ण ने बाल मुकुन्द के रूप में अपनी झलक दिखाई। बालक नारद ने उस अनुपम रूपराशि को जब पुनः देखना चाहा तो वह झलक उसे दृष्टिगोचर न हुई, इससे वह खिन्न होकर रुदन करने लगा।
इस बीच उसे आकाशवाणी सुनाई दी-हे वत्स! मेरी जिस दिव्य आभा के तुमने एक बार दर्शन किए हैं उसे तुम दिव्य शरीर धारण करने पर ही पुनः देख पाओगे।
यह सुनकर बालक नारद निश्चिंत हो गया। यथा समय भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए उसका जन्म-मरण से पीछा छूट गया और उसका जीवन ब्रह्म में लीन हो गया। इस प्रकार नारद जी शाप से मुक्त हो गए।
भगवान शिव की कहानी
ब्रह्मा जी से वर पाने के बाद तरकसुर के तीनों पुत्रों ने मयदानव के द्वारा तीन नगर बनवाए।
उसमे एक सोने का एक चांदी का एक लोहे का था।
ये नगर आकाश में इधर उधर घूम सकते थे।
इसमें बड़े-बड़े भवन थे बाग़, सड़के थी।
करोडो दानव उसमे निवास करते।
सुख सुविधा तो उन नगरों में इतनी थी की कोई भी दानव जो भी इच्छा करता उसे वह मिल जाता।
इतना ही नहीं तरकसुर के पुत्र ने तपस्या करके ब्रह्मा जी से वर मांगकर मुर्दो को भी जीवित कर देने वाली बाबड़ी बनवाई।
कोई भी दानव अगर मर जाता तो उसे उस बाबड़ी में ले जाया जाता।
वह पुनः जीवित हो जाता और पहले से ज्यदा शक्तिशाली हो जाता।
फिर क्या था दानव निर्भय होकर देवतओं को डराने लगे।
वे जगह-जगह देवतओं को भगाकर इधर-उधर रहने लगे।
वे मर्यादाहीन दनाव देवताओं के उद्यानों को तहस नहस कर देते और ऋषियों के पवित्र आश्रमों को भी नष्ट कर देते।
इनके अत्याचारों से चारो तरफ हाहाकार मच गया।
इस प्रकार जब सब लोक पीड़ित हो गए तो सभी देवता इंद्रा के साथ मिलकर उन नगरों पर प्रहार करने लगे।
किन्तु ब्रह्मा जी के वर के प्रभाव से सब असुर पुनः जीवित हो जाते थे।
सभी देवता मिलकर बह्मा जी के पास गए।
बह्मा जी ने देवतओं को बताया की भगवान् शिव के अलावा आपको कोई भी इस समस्या से नहीं निकाल सकता।
तदन्तर ब्रह्मा जी के नेतृत्व में सभी देवता भगवान् शिव के पास गए।
भगवान् शिव शरनपन्नो को अभयदान देने वाले है।
तेजराशी पारवती जी के पति भगवान् शिव के दर्शन पाकर सभी देवतओं ने सर झुककर प्रणाम किया।
भगवान् शिव ने आशीर्वाद स्वरुप कहा कहिये आप सब की क्या इच्छा है।
भगवान् शिव की आज्ञा पाकर देवतओं ने भगवान् शिवकी स्तुति की और कहा हम मन वाणी,
कर्म से आपकी शरण में हैं आप हमपर कृपा करे।
भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर कहा आप सब भय रहित होकर कहिये मैं आपका क्या कार्य करू।
इस प्रकार जब महादेव जी ने देवतओं को अभयदान दे दिया तब ब्रह्मा जी ने हाथ जोड़कर कहा- सर्वेशर आपकी कृपा से प्रजापति के पद पर प्रतिष्ठित होकर मैंने दानवो को एक वर दे दिया था।
जिससे उन्होंने सब मर्यादायों को तोड़ दिया आपके सिवा उनका कोई वध नहीं कर सकता।
तब भगवान् शिव ने कहा – देवताओं ! में धनुष – बाण धारण करके रथ में सवार हो उनके वध शीध्र ही करूँगा।
देवतागण संतुष्ट होकर भगवान् शिव की जय जय कार करने लगे।
कुंभकर्ण का युद्ध
राम के हाथों पराजित होकर रावण अपने मन में बड़ा लज्जित हुआ। उसका अहंकार चुर-चुर हो गया।
राम को जेसा उसने समझ रखा था उससे वे कहीं बढ़कर निकले।
उसके भीतर का बल थक गया। उसके बहुत-से बीर मारे जा चुके थे।
सेनापति प्रहस्त भी मारा गया। इस संकट के समय उसने अपने छोटे भाई कुंभकर्ण को जगाने की बात सोची।
राक्षसों की एक टोली के साथ बहुत-से भैंसे और मदिरा के घड़े भेजे।
एक दिन जगकर कुंभकर्ण छह महीने सोता था।
सब राक्षस मिलकर कुंभकर्ण को जगाने लगे।
उन्होंने बाजे बजाए, उसके हाथ-पैर खींचे बाल और कान खींचे, फिर भी वह नहीं जगा। जब उस पर हाथी दौड़ाए गए, तब कहीं वह जागा। अँगड़ाई लेता हुआ वह उठ बैठा।
उठते ही उसने कई घड़े मदिरा पीकर बहुत-सा कच्चा मांस खाया।
तब कुंभकर्ण ने पूछा, “मुझे किसने और क्यों जगाया है ?” मंत्री ने कहा, राक्षसेन्द्र आपको याद कर रहे हैं। बड़ी देर से आपकी प्रतीक्षा में हैं।
कुंभकर्ण रावण के पास पहँँचा और उसके चरणों में प्रणाम किया। फिर रावण से जगाने का कारण पुछा।
रावण बोला, वीरवर, तुम सो रहे थे। तुम्हें नहीं मालूम, इस बीच यहाँ कितना अनर्थ हआ है।
राम की वानर सेना समुद्र पर पुल बनाकर लंका में आ गई है और वह नगर का घेरा डाले पड़ी है |
कई दिन से युद्ध चल रहा है | हमारे अनेक बड़े-बड़े वीर मारे गए हैं | सेनापति प्रहस्त भी वीर गति को प्राप्त हुए | अब तुम्हारा ही सहारा है।
कुंभकर्ण हँसा और बोला, “हमने तुम्हें पहले ही बताया था कि बुरे कर्मों का फल बुरा ही होता है।
तुमने हमारी बात पर कोई ध्यान ही नहीं दिया |
मंदोदरी और विभीषण की सलाह को भी तुमने ठुकरा दिया |
रावण कुछ रुष्ट-सा होकर बोला, “भाई, मैं तुम्हें उपदेश सुनाने के लिए नहीं जगाया, जो हुआ सो हुआ।
मुझे तुम्हारे पुरुषार्थ की जरूरत है।
तुम्हारे पुरुषार्थ से ही मेरा संकट दूर हो सकता है।” कुंभकर्ण को रावण पर दया आई।
उसने कहा, तुम चिन्ता न करो। अब मैं रणभूमि को जा रहा हूँ।
राम-लक्ष्मण को मारकर तुम्हें सुखी करूँगा।
कुंभकर्ण की बात सुनकर राठण प्रसन्न हुआ और उसकी वीरता की प्रशंसा करके युद्ध के लिए उसे विदा किया।
हाथ में एक बड़ा-सा त्रिशूल लेकर कुभकर्ण दुर्ग के बाहर आ गया।
कुंभकर्ण को देखते ही वानर सेना में भगदड़ मच गई।
अंगद ने बड़ी कठिनाई से उनको रोका।
वे उस पर बड़े-बड़े वृक्ष और बड़ी-बड़ी शिलाएँ फेंकन लगे। शिलाएँ उसके शरीर में ऐसे लगतीं जैसे हाथी को आक फल की चोट लगे।
कुंभकर्ण की सेना से तो जहाँ-तहाँ वानर वीर भिड़ गए, पर उसके सामने आने का कोई साहस न करता। हनुमान आगे बढ़े।
उन्होंने बड़ी भारी शिला फेंककर उसे थोड़ा-सा घायल किया। कुंभकर्ण ने अपने त्रिशूल से उनका हृदय फाड़ दिया।
रक्त की धार बह निकली। हनुमान को व्याकुल होते देखकर वानर सेना में त्राहि-त्राहि मच गई। कुंभकर्ण ने अनेक प्रमुख वानर वीरों को मारकर अचेत कर दिया।
तब अंगद आगे बढ़े। कुंभकर्ण के वार को बचाते हुए उन्होंने उसकी छाती में घूँसा मारा। थोड़ी देर के लिए कुंभकर्ण मूर्च्छित हुआ, फिर उसने अंगद और सुग्रीव दोनों को अचेत कर दिया। सुग्रीव को पकड़कर वह लंका की ओर ले चला। मार्ग में सुग्रीव की मूर्च्छा टूटी।
उन्होंने अपने पैने नखों और दाँतों से उसके नाक-कान काट डाले और सीना फाड़ दिया।
रक्त बहता देखकर कुंभकर्ण ने सुग्रीव को उछालकर पृथ्वी पर दे मारा।
वे तुरंत उठकर भागे। कुंभकर्ण भी लौट पड़ा और वानर सेना पर टूट पड़ा। अब लक्ष्मण कुंभकर्ण से युद्ध करने लगे। लक्ष्मण की बाण-वर्षा से कुंभकर्ण प्रसन्न
हुआ। वह लक्ष्मण से बोला, बीरबर ! तुम युद्ध-विद्या में प्रवीण हो। मैं मान गया।
अब मुझे राम के सामने पहुँचने दो। में अब उन्हीं को मारना चाहता हूँ।
लक्ष्मण ने संकेत से राम को दिखा दिया।
राम तैयार खड़े थे। युद्ध छिड़॒ गया।
दाहिने हाथ में कुंभकर्ण एक भारी मुग्दर लिए था।
एक दिव्य बाण चलाकर राम ने कुंभकर्ण की वह भुजा काट दी।
भुजा के नीचे कितने ही वानर दब गए।
तब बाएँ हाथ से वृक्ष उखाड़कर कुभकर्ण राम की ओर दोड़ा।
दूसरी भुजा भी राम ने काट डाली। तब वह मुँह फाड़कर राम की ओर दौड़ा। राम ने उसके दोनों पैर काट डाले।
फिर भी वह नहीं मरा। तब श्रीराम ने एक बाण से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।
वानर सेना में श्रीराम की जय-जयकार होने लगी।
बची-खुची राक्षस सेना लंका की ओर भाग गई।
धन्य कौन?
एक बार भगवान श्रीकृष्ण दुर्योधन के यज्ञ में शामिल होकर द्वारकापुरी लोट चुके थे।
समुद्र के मध्य में स्थित द्वारकापुरी अपरावती के सदृश्य शोभा दे रही थी।
उसका वैभव इंद्र की स्वर्णपुरी के वैभव को भी लज्जित कर रहा था। उसकी छटा के सामने इंद्रपुरी की छटा भी लजा रही थी।
उसके यश और प्रताप का गौरव पृथ्वी पर चारों ओर गूंज रहा था। साधारण नृपतियों की तो बात क्या, द्वारका के वैभव को देखकर स्वयं देवराज इंद्र के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुआ करती थी।
एक बार पृथ्वी के सैकड़ों नृपति द्वारकापुरी की छटा और उसके वैभव को देखने के लिए वहाँ गए।
द्वारकाधीश की ओर से उन सभी नृपतियों का आदर-सत्कार किया गया और उनके निवास के लिए समुचित व्यवस्था की गई।
मध्याह्न का समय था। राजसभा में सभी नृपतियों के मध्य स्वर्ण सिंहासन पर भगवान श्री कृष्ण शोभायमान थे। वे ऎसे ज्ञात हो रहे थे, मानो देवताओं के मध्य में प्रजापति ब्रह्मा शोभा दे रहे हों।
सहसा आकाश बादलों से आच्छन्न हो उठा, गंभीर गर्जना होने लगी और रह-रहकर बिजली भी चमकने लगी। ऎसा ज्ञात होने लगा, मानो प्रलय होने वाला है। राजसभा में बैठे हुए नृपतिगण विस्मित और भयभीत होकर आकाश की ओर रह-रहकर देखने लगे।
नृपतियों को उस समय और भी आश्चर्य हुआ, जब उन्होंने आकाश में छाए हुए बादलों के भीतर से वीणा बजाते हुए देवर्षि नारद को धरती पर उतरते हुए देखा।
नृपतिगण विस्मय भरे नेत्रों से नारद जी की ओर देखने लगे। नारद ने राज सभा के मध्य में उतरकर, भक्तिपूर्वक भगवान श्री कृष्ण को प्रणाम किया और विनितता के साथ कहा- "प्रभो, आप धन्य हैं, सभी विभूतियों के साथ आपकी शोभा अभूतपूर्व है।"
नारद जी की बात सुनकर भगवान श्री कृष्ण मुस्करा उठे। उन्होंने कहा- "हाँ, नारद जी, मैं धन्य हूँ और सभी विभूतियों के साथ मेरी शोभा अपूर्व है।"
यह सुनकर नारद हर्ष से गदगद हो उठे। वे आनन्द की तरंगों में डूब कर बोले-"प्रभो! मेरे प्रश्न का उत्तर मुझे मिल गया। मैं आपको पहचान गया, आपके दर्शन से कृतकृत्य हो गया। अब में जा रहा हूँ।
राजसभा में बैठे हुए नृपतिण आश्चर्यचकित हो गए। उन्हें नारद और श्री कृष्ण की ओर देखते हुए बोले-'द्वारकाधीश, नारद ने क्या कहा और आपने क्या उत्तर दिया- हमारी समझ में कुछ भी नहीं आया। हमें नारद और अपनी बात का वास्तविक अर्थ समझाने की कृपा करें।'
भगवान श्रीकृष्ण ने कह-'वास्तविकता तो आपको स्वयं नारद जी ही समझाएंगे।
यह कहकर भगवान श्रीकृष्ण ने नारद की ओर देखा। नारद अपनी और भगवान श्रीकृष्ण की बात का वास्तविक अर्थ नृपतियों को समझाने लगे।
नृपतिगण नारद की ओर देखते हुए बड़े ध्यान से उनकी बात सुनने लगे। नारद जी बताने लगे-'प्रभात के पश्चात का समय था।
सूर्य की स्वर्णिम किरणॆं धरती पर खेल रही थीं। मैं गंगा के तट पर विचरण कर रहा था। मेरी दृष्टि एक विशाल कूर्म पर पड़ी, जो गंगा के पवित्र जल में डुबकियां लगा रहा था।
मैंने कूर्म के पास जाकर उससे कहा-'तू धन्य है, जो दिन-रात गंगा के पवित्र जल में डुबकियां लगाया करता है। गंगा के जल में डुबकियां लगाने के कारण तू देवताओं के समान पवित्र हो गया है।
मेरी बात सुनकर कूर्म बोल उठा-'देवर्षि, मैं धन्य नहीं हूँ। धन्य तो है वह गंगा, जिसके जल में हमारे जैसे लख-लख जीव निवास करते हैं।
कूर्म की बात सुनकर मैं गंगा के समक्ष उपस्थित हुआ। मैंने गंगा से कहा-'देवसर्य गंगे, तू धन्य है। तू लख-लख जीवों को अपने जल में स्थान देकर उन्हें संजीवनी प्रदान करती है।'
मेरी कथन को सुनकर गंगा बोली-'देवर्षि, मैं धन्य नहीं हूँ। धन्य तो हैं वह समुद्र, जो मेरी जैसी सैकड़ों सरिताओं को धारण करता है।'
मैं समुद्र के समक्ष उपस्थित हुआ। मैंने समुद्र से कहा-'सरिताओं के स्वामी, आप धन्य हैं। आप सैकड़ो सरिताओं को अपने भीतर स्थान देकर उनके जीवन को कृतार्थ करते हैं।'
मेरी बात सुनकर समुद्र बोला-देवर्षि, मैं धन्य नहीं हूँ। धन्य तो है वह मेदिनी, जो हमारे जैसे बहुत से समुद्रों को ऊपर उठाए हुए हैं।
मैंने मेदिनी के समक्ष उपस्थित होकर उससे कहा-'वसुन्धरे, तू धन्य है।
तू बहुत से समुद्रों को धारण करके उन्हें गौरव प्रदान करती है।' मेदिनी ने उत्तर दिया- 'नारद मैं धन्य नहीं हूँ।
धन्य तो हैं वे पर्वत, जो मुझे भी धारण करने के कारण भूधर कहलाते हैं।
मैंने पर्वतों के समक्ष उपस्थित होकर उनसे कहा-'पर्वतों, आप धन्य हैं। आप मेदिनी को धारण करके उसके मनोरथ सफल बनाते हैं।'
पर्वतों ने कहा-'देवर्षि, हम धन्य नहीं हैं। धन्य तो प्रजापति ब्रह्मा हैं, जिन्होंने सृष्टि की रचना की है।'
मैंने ब्रह्मा की सेवा में उपस्थित होकर उनसे कहा-'प्रजापते, आप धन्य हैं। आपने सृष्टि की रचना करके अपनी क्षमता का परिचय दिया है।'
प्रजापति ने उत्तर दिया-'देवर्षि, मैं धन्य नहीं हूँ। धन्य तो हैं वे भगवान श्रीकृष्ण, जो विष्णु के अवतार हैं और जो इस समय द्वारका के राजसिंहासन पर विराजमान हैं।'
यह वास्तविकता बता कर नारद जी ने नृपतियों से कहा- 'मैं इसी सत्य के अनुसंधान के लिए यहाँ आया था।
भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं उस सत्य का उदघाटन किया- मैं धन्य हूँ। नृपतियों, श्रीकृष्ण को छोड़कर और कोई धन्य नहीं है।
नारद अपने कथन को समाप्त कर 'नारायण-नारयण' कहते और वीणा बजाते हुए आकाशलोक की ओर चले गए और नृपतिगण श्रीकृष्ण को सर्वज्ञ, सर्वपूजित जानकर उनकी वंदना करने लगे। उनके चरणॊं में नत-मस्तक होने लगे।
हिमालय की बेटी
दक्ष राजा की कन्या सती ने भगवान से यह वर प्राप्त कर लिया था कि हर जन्म में वह शिव को पति रूप में प्राप्त करती रहे। पार्वती के रूप में उसने पर्वतराज हिमालय के घर में जन्म लिया। उसके जनमते ही हिमालय का महत्व और अधिक बढ गया। दूर-दूर से आकर ऋषि-मुनि आश्रम बनाकर रहने लगे। हिमालय ने भी उनको पर्याप्त मान-सम्मान दिया।
चारों ओर सुंदर पर्वत पर सदैव फल-फूल उनके नवीन वृक्ष प्रकट हुए। वहाँ पर नाना प्रकार की मणियों की खानें प्रकट हो गई। सब नदियां पवित्र जल को लेकर बहने लगीं। पशु-पक्षी आपस में प्रेम पूर्वक रहने लगे। सब जीव-जंतुओं ने वैमनस्यता को त्याग दिया। पार्वती के आने से हिमालय हर प्रकार से समृद्ध हो गया। नारद जी को इसकी खबर लगी तो वह वीणा बजाते हुए हिमालय से मिलने चल दिए। पर्वतराज ने आदर से सम्मानपूर्वक, उनका स्वागत किया। चरण धोकर सुन्दर आसन पर बैठाया। नारद जी के आने से हिमालय ने अपने भाग्य की सराहना की। पार्वती के विषय में पूछा।
नारद जी ने हंसकर कहा-'पर्वतराज! तुम्हारी यह कन्या सब गुणॊं की खान है। यह स्वभाव से ही सुन्दर, सुशील और चतुर है। उमा, अंबिका तथा भवानी इनके नाम हैं। यह कन्या समस्त सुलक्षणों से सम्पन्न है। यह अपने स्वामी को सदैव प्यारी होगी। इसका सुहाग अचल रहेगा तथा इसके माता-पिता यश पाएंगे।
आपकी यह कन्या सारे संसार में पूज्य होगी, इसकी सेवा करने वालों के लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं होगा। इसका नाम स्मरण करके स्त्रियां संसार में पतिव्रत रूपी तलवार की धार पर चढ जाएंगी। तुम्हारी इस सुशील कन्या का विवाह शिव जी से होगा। शिव जी को प्राप्त करने के लिए इसे तपस्या करनी पड़ेगी, तपस्या कुछ कठिन जरूर है, पर इससे डरने की आवश्यकता नहीं। भगवान शिव तपस्या से शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं। यह कहकर नारद जी सबको आशीर्वाद देकर वहाँ से चले गए।
पर्वतराज को एकान्त में पाकर उनकी पत्नी रानी मैना ने कहा-'हे नाथ! मैं तो देवर्षि की बात समझ नहीं पाई। कन्या के योग्य घर, वर और कुल उत्तम हो तभी विवाह कीजिए, नहीं तो कन्या कुंआरी रखना ही ठीक है। उमा मुझे प्राणॊं से भी अधिक प्यारी है। योग्य वर के हाथ कन्या को न देने पर सब लोग हमें मूर्ख बताएंगे।'
पर पार्वती जी ने अपने मन में निश्चय कर लिया था कि वह शिव को ही अपना पति बनाएंगी। माता-पिता की आज्ञा पाकर पार्वती वन में जाकर तपस्या करने लगी। पार्वती का शरीर कठोर नहीं था। कोमल शरीर लेकर उसने तपस्या आरंभ कर दी। आरंभ में वह फूल-फल खाकर दिन व्यतीत करती रही। बाद में उसने इसे भी छोड़ दिया।
पार्वती की कठोर तपस्या से आकशवाणी हुई 'पार्वती, अब तुम्हें तपस्या करने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हारा मनोरथ सिद्ध हुआ। तुम्हें भगवान शिव वर के रूप में अवश्य मिलेंगे।
इतने में सप्त ऋषियों ने पार्वती की परीक्षा लेनी चाही। वे पार्वती के पास आए। ऋषिगणॊं ने पार्वती जी के पास आकर पूछा-'पार्वती? तुम यह कठोर तपस्या किस हेतु कर रही हो? किसकी आराधना कर रही हो और क्या चाहती हो? हमसे स्पष्ट कहो।
ऋषिगणॊं की बात सुनकर पार्वती ने लज्जाते हुए कहा-'मुनिवर! मैंने शिव को अपना पति बनाने के लिए यह तपस्या की। देवर्षि नारद जी के कहने पर मैंने यह तपस्या की। पार्वती की बात सुनकर ऋषिगण हंस पड़े। उन्होंने कहा-'पर्वत की बेटी होने के कारण तुम्हारा नाम पार्वती है। तुम्हारा विचार दृढ होना चाहिए। नारद जी का उपदेश सुनकर किसका भला हुआ है?
'नारद जी ने दक्ष-पुत्रों को जाकर उपदेश दिया। चित्रकेतु का घर उन्होंने बिगाड़ा। हिरण्यकशिपु का भी ऎसा ही हाल किया।'
ऋषियों ने आगे कहना जारी रखा, 'नारद जी की सलाह पर चलने वाले स्त्री-पुरुष भिखारी हो जाते हैं। मन के वह बड़े कपटी हैं। शरीर उनका अवश्य साफ है। वह अपने ही समान सबको बनाना चाहते हैं।'
तुम बहुत भोली लड़की हो जो उनकी बातों मे विश्वास करके ऎसे पति की कामना करने लगीं जो उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, घरहीन, बुरे वेश वाला, मुण्डमाल-धारी, कुलहीन, नंगा और सांपों को धारण करने वाला है। ऎसा वर तुम्हें कौन-सा सुख देगा।'
'ठग ने तुम्हें अच्छी तरह भ्रमित कर दिया है। सती की कहानी नहीं जानती। उसने भी शिव से विवाह किया। शिव ने उसे यज्ञ में मरवा डाला।'
'शिव जी अब निश्चिंत हैं। उन्हें किसी बात की चिन्ता नहीं। भीख मांगकर खाते हैं। श्मशान घाट में भभूति लगाए घूमते रहते हैं। ऎसे फक्कड़ बाबा के घर में कोई स्त्री कैसे सुख से रह सकती है? अपना भला चाहो तो उन्हें वर के रूप में प्राप्त करने का विचार त्याग दो। हम तुम्हारा विवाह बैकुण्ठ में रहने वाले श्रीपति भगवान विष्णु से कर देंगे।'
ऋषियों से इतना सब सुनने के बाद पार्वती जरा भी विचलित न हुई। बोली-'आप लोगों ने जो कहा सब सत्य है, पर मेरी प्रतिज्ञा भी अटल है। मैं शिव जी के अतिरिक्त किसी दूसरे को अपना पति नहीं बनाऊंगी।
पार्वती के अटल निश्चय के सामने ऋषिगण हार गए। वे पार्वती के मन को डिगा न सके। अंत में उन्होंने कहा-'जगत माता भवानी! आपकी जय हो।' यह कह कर ऋषिगण वहाँ से चले गए और पार्वती पिता के साथ अपने घर आ गई।
उन्हीं दिनों की बात है। तारक नाम का एक महाबली दैत्य था। उसने सारे देवताओं को परास्त करके उनकी सम्पत्ति हड़प ली थी। देवगण उससे युद्ध करने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे। सब देवता दुखी मन से ब्रह्मा जी के पास पहुँचे। उन्होंने ब्रह्मा जी को व्यथा सुनाई। ब्रह्मा जी ने कहा-'राक्षस का अंत शिव जी के पुत्र द्वारा ही संभव हो सकेगा। अतः शिव जी का पुत्र होना जरूरी है।'
'पर इन सबके पहले कामदेव को शिव जी के पास भेजना जरूरी है। बिना कामदेव के जाए शिव जी का गृहस्थ ध्रर्म में प्रवेश करना असंभव है। देवताओं ने कामदेव से विनती की। कामदेव ने सारी बात सुनकर कहा- शिव जी से विरोध करने में मेरी भलाई नहीं है। पर मैं तुम लोगों की सहायता अवश्य करूंगा।'
जहाँ शिव जी ध्यान मग्न बैठे थे, वहाँ कामदेव ने जाकर अपना चमत्कार दिखाना आरंभ किया। देव, दैत्य, मनुष्य, पशु-पक्षी सब काम के वशीभूत होने लगे। पेड़, पौधे भी इसके प्रभाव से युक्त हुए बिना नहीं रह सके। दो घड़ी तक सारे ब्रह्माण्ड में कामदेव का चमत्कार फैल गया।
किसी तरह कामदेव डरते-डरते शिव जी के सामने पहुँचे। सौभाग्य से शिव जी का उसी समय ध्यान टूटा। उन्होंने अपनी आँखें खोलीं। सामने कामदेव खड़ा था। शिव जी की नजर उस पर पड़ते ही वह भस्म हो गया।
कामदेव की पत्नी जब सुना कि उसके पति का शिव की दृष्टि ने भस्म कर दिया है तो वह रोती-चिल्लाती शिव जी के पास पहुँची। शिव जी की प्रार्थना करते हुए वह दया की भिक्षा मांगने लगी। शिव जी उसकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर बोले-'रति! आज से तुम्हारे पति का नाम 'अनंग' होगा। वह बिना शरीर के ही सबको प्रभावित करेगा।'
वानरों द्वारा सीता की खोज
सबसे विदा लेकर सुग्रीव किष्किंधा नगर में चले गए।
वर्षा काल, बिताने के लिए राम प्रस्रवण पर्वत की एक सुंदर गुफा में रहने लगे।
वर्षा ऋतु राम को बड़ी दुखदायी हो रही थी।
कभी वे लक्ष्मण से कहते_ “'सुग्रीव को तो स्त्री-सुख् के साथ-साथ राज्य भी मिल गया |
वह कितना सुखी है। मुझे पहले राज्य लक्ष्मी ने छोड़ दिया, फिर वन में आकर स्त्री ने, कहाँ जाऊँ ! क्या करूँ !
उधर सुग्रीव ने बालि की स्त्री तारा से विवाह कर लिया |
भोग-विलास और मदिरा पान में वह डूब गया और राम को दिया हुआ अपना वचन बिल्कुल भूल गया।
जब वर्षा समाप्त गई तो हनुमान ने सुग्रीव को अपने कर्तव्य की याद दिलाई।
सेनापति नील को बुलाकर सुग्रीव ने आज्ञा दी कि पंद्रह दिन के भीतर सब वानर राजधानी में आजाएँ। नील ने सभी दिशाओं में दूत भेजे।
सुग्रीव फिर भोग-विलास में रम गया।
इधर शरद ऋतु आने पर सुग्रीव राम के पास नहीं आया, तो उन्हें बड़ा क्रोध हुआ।
उन्होंने लक्ष्मण से कहा कि राजमद में डूबकर मालूम होता है सुग्रीव मेरा काम भूल गया है। किष्किंधा जाकर उससे साफ कह दो कि यमलोक का दरवाजा बंद नहीं हुआ। जिस रास्ते बालि गया है उसी से उसको भी भेज दूँगा।
इतना सुनते ही लक्ष्मण आग बबूला हो गए और धनुष बाण लेकर चल दिए। लक्ष्मण को बड़े क्रोध में देखकर राम ने कहा - डरा धमकाकर और समझा-बुझाकर काम निकालना है। आखिर सुग्रीव हमारा मित्र ही तो है और उससे सहायता भी लेनी है।
किष्किंधा पहुँचकर लक्ष्मण ने धनुष की टंकार की तो सुग्रीव भयभीत हो गया। लक्ष्मण के सामने आने का उसको साहस नहीं हुआ।
तारा ने बुद्धिमानी से उनका क्रोध शांत किया | वह लक्ष्मण को अन्तःपुर में ले गई और उनका उचित आदर-सत्कार किया। सुग्रीव ने हनुमान को बुलाकर कहा_ “फिर दूत भेजो। सब वानरों को बुलवाओ। जो दस दिन के भीतर नहीं आ जाएगा उसे कठोर दंड मिलेगा।
इसके बाद लक्ष्मण के साथ सोने की पालकी में बैठकर वह राम से मिलने गया। राम के चरणों पर गिरकर उसने क्षमा माँगी। राम ने बडे स्नेह से उसे गले लगा लिया |
राम और सुमग्रीव में बातें हो ही रही थीं कि वानर-भालुओं की टोलियाँ आ पहुँची। नल, नील, अंगद और हनुमान के साथ लाखों वानर प्रस्नवण पर्वत पर आ गए। जामवंत के पीछे-पीछे भाजुओं की बड़ी भारी भीड़ थी। वानर-भालुओं को देखकर राम बड़े प्रसन्न हुए।
राम ने सुग्रीज से कहा, '' भाई। पहले तो यह पता लगाना है कि सीता जीवित है अथवा नहीं। यदि जीवित है तो किस स्थिति में है ?
सुप्रीव ने बानर-दल को चार भागों में बाँटा। प्रत्येक दल का एक नायक बना दिया। सुग्रीव ने उन्हें नगरों, द्वीपों और बनों का पूरा विवरण भी बता दिया |
उसने हनुमान, नल, नील आदि चुने हुए वानरों को अंगद के नेतृत्व में दक्षिण की ओर भेजा | हनुमान को पास बुलाकर राम ने अपने नाम की अँगूठी दी और कहा कि मेरी यह निशानी देखकर सीता समझ जाएगी कि तुमको मैंने भेजा है। उसका हाल लेकर मेरा दुःख भी उसे सुनाना।
सुग्रीय ने सबको कहा, “'वीरो ! जैसे, भी हो सके सीताजी का पता लगाओ। इस काम के लिए एक महीने का समय दिया जा रहा है। बिना समाचार लिए जो एक महीने बाद लौटेगा, उसे मृत्यु दंड मिलेगा।
'राजा सुग्रीव की जय ! महाराजा रामचन्द्र की जय !' नारे लगाते हुए वानर-बीर अपनी-अपनी दिशाओं में चल पड़े।
पूर्व, पश्चिम और उत्तर की ओर गए दल निराश होकर महीने के भीतर लौट आए | दक्षिण का दल वनों, पर्वतों और कंदराओं को खोजता हुआ समुद्र तक जा पहुँचा | अब कहाँ जाएँ ! सामने अथाह सागर गरज रहा था।
किष्किंधा से चले कई महीने हो गए थे |
यदि यों ही लौटे तो सुग्रीव के हाथों मृत्यु निश्चित है।
अब न आगे जा सकते हैं और न पीछे।
तभी उन्होंने पर्वत की चोटी पर एक बड़ा भयंकर गिद्ध देखा। वह जटायु का बड़ा भाई संपति था।
बानर उसे देखकर डर गए और समझे कि निश्चित ही वह हमें खा जाएगा | हनुमान ने बुद्धि से काम लिया।
वे बोले, आपसे अच्छा तो जटायु ही था जो राम का कुछ काम करके तो मरा। जटायु का नाम सुनकर संपाति बोला वानरों ! घबराओ मत | अपना परिचय दो और कृपा करके यह बताओ कि जटायु कब और कैसे मरा, वह मेरा छोटा भाई था |
अंगद ने सारा हाल कह सुनाया। उसे सुनकर संपाति बोला, “मैं अब बूढ़ा हो गया हूँ। नहीं तो तुम्हारी सहायता करके रावण से अपने भाई की मृत्यु का बदला लेता | कुछ महीने पहले
मैंने देखा था कि रावण एक स्त्री को लिए जा रहा है | वह हा राम ! हा कक्ष्मण | कहकर रोती जा रही थी।
वह सीता ही होगी।
समुद्र के किनारे तुम,दक्षिण तक चलते जाओ।
वहाँ से सौ योजन लंबे समुद्र को यदि कोई पार कर सकेगा तो बह सीता से मिल सकता है।
वानर दक्षिणी तट तक जा पहुँचे।
अब लंका पहुँचने की योजना पर विचार होने लगा | कोई भी वानर आगे. नहीं आ रहा था। अंगद बड़े उदास हो गए |
तब जामवंत ने हनुमान से कहा''बीर ! तुम तो पवन पुत्र हो | कैसे चुप बैठे हो ? उठो ! सबकी आँखें तुम्हारी ओर लगी हैं।
इतना सुनना था कि हनुमान, सिंह की तरह अँगड़ाई लेकर उठे।
सोने के पहाड़ की तरह उनका शरीर हो गया। उन्होंने हाथ जोड़कर जाने की आज्ञा माँगी |
सबने उनको शुभकामनाएँ देकर बिदा क्रिया और कंहा कि हनुमान ! हमारा जीवन भी तुम्हारे ही हाथ में है।
एक छलाँग में हनुमान महेन्द्र पर्वत पर जा खडे हुए।
भगवान भावनाओं को महत्व देखते है
भगवान की पूजा में भावना और श्रद्धा का महत्व सोने और चांदी से ज्यादा होता है इस बात को अत्यंत खूबसूरत तरीके से समझाने हेतु श्री कृष्ण और उनकी दो बीवियों रुक्मणी और सत्यभामा से संबंधित एक बहुत ही अच्छी पौराणिक कथा है।
भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा के मन में एक दिन बहुत ही अजीब सा विचार आया। वह हठ करने लगीं कि श्री कृष्ण जी को अपने गहनों से तोलेंगी।
श्री कृष्ण जी को जब यह बात पता चली तो वे सत्यभामा से कुछ बोले नहीं बस मंद मंद मुस्कुराने लगे।
सत्यभामा अपने ढेर सारे जेवर ले आयीं। पलड़े के एक तरफ उन्होंने भगवान को बैठा दिया और दूसरी तरफ अपने जेवर रखने लगी।
लेकिन पलड़ा अभी भगवान की तरफ ही झुका था।
सत्यभामा के पास जेवरों की कोई कमी तो थी नहीं वो जाकर और ढेर सारे जेवर ले आयीं लेकिन पलड़ा जरा भी नहीं हिला। सत्यभामा ने अपने सारे जेवर तराजू पर रख दिए लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। अंत में वह थक कर बैठ गईं।
तभी वहाँ रुक्मणी का आगमन हुआ, सत्यभामा ने उन्हे सारी बात कह सुनाई। सत्यभामा की बात सुनकर तुरंत रुक्मणी जी पूजा का सामान ले आयीं।
उन्होने भगवान की पूजा अर्चना की और उसके बाद में जिस पात्र में भगवान का चरणोंदक रखा होता है उसे गहनों वाले पलड़े पर रख दिया।
देखते ही देखते पलड़ा झुकने लगा और भगवान का पलड़ा ऊपर उठ गया।
सत्यभामा हैरानी से सब कुछ देख रही थी। उसको समझ नहीं आ रहा था कि जो पलड़ा उनके इतने सारे गहनों से नहीं झुका वो एक हल्के से पात्र से कैसे झुक गया! वे रुक्मणी से इसका कारण पूछने लगी।
तभी नारद मुनि भ्रमण करते हुए वहाँ पहुँच गये। सत्यभामा की परेशानी समझ कर वे इसका कारण उन्हे बताने लगे।
नारद जी बोले भगवान की पूजा में महत्व सोने चांदी के गहनों का नहीं होता बल्कि सच्ची भावना और श्रद्धा का होता है।
रुक्मणी ने अत्यंत प्रेम से भगवान का पूजन किया जिससे उनकी श्रद्धा और भक्ति की ताकत चरणोंदक में समा गई।
जब रुक्मणी ने वह पात्र तराजू पर रखा तो उनकी भक्ति की ताकत से पलड़ा नीचे चला गया।
ईश्वर को सिर्फ सच्चे प्रेम, श्रद्धा और भक्ति की भावना से ही पाया जा सकता है। सोने चांदी और रुपए पैसों का भगवान की नजर में कोई मोल नहीं होता। भगवान की पूजा यदि सही ढंग से की जाये तो ईश्वर की प्राप्ति अवश्य होती है।
सच्ची भक्ति और प्रेम के आगे ईश्वर भी झुक जाते हैं। सत्यभामा को उनकी बात समझ में आ गई थी।
इस पौराणिक कथा के मध्य्यम से हमें यही सीख मिलती है कि अगर भगवान् के करीब रहना है या ईश्वर को प्राप्त करना है तो सोना चांदी और पैसा जैसी भौतिकवादी चीज़ों को भूलकर अपने मन में श्रद्धा का भाव उत्पन्न करे, यही एकमात्र मार्ग है सच्ची भक्ति और ईश्वर को पाने का।
गुरु दक्षिणा
एक बार राक्षस राज रावण कैलाश पर्वत पर महादेव जी की आराधना करने लगा।
वहाँ महादेव जी को प्रसन्न न होते देख वह हिमालय के वृक्ष खण्डक नामक दक्षिण भाग में जाकर तपस्या में लीन हो गया।
वहाँ भी जब उसने शिवजी को प्रसन्न होते नहीं देखा, तब वह अपना मस्तक काटकर शिवलिंग पर चढाने लगा। नौ मस्तक काटकर चढा देने के बाद जब एक मस्तक बचा, तब शंकर जी प्रसन्न हो गए और बोले- "राक्षसराज! अभिष्ट वर मांगो।"
रावन ने कहा- "भगवान! मुझे अतुल बल दें और मेरे मस्तक पूर्ववत हो जाएं।"
भगवान शंकर ने उसकी अभिलाषा पूर्ण की। इस वर की प्राप्ति से देवगण और ऋषिगण बहुत दुखी हुए। उन्हों ने नारद जी से पूछा- "नारद जी, इस दुष्ट रावण से हम लोगों की रक्षा किस प्रकार होगी?"
नारद जी ने कहा- "आप लोग जाएं, मैं इसका उपाय करता हूँ।" यह कह कर नारद जी, जिस मार्ग से रावण जा रहा था, उसी मार्ग पर वीणा बजाते हुए उपस्थित हो गए और बोले-'राक्षसराज! तुम धन्य हो, तुम्हें देखकर मुझे असीम प्रसन्नता हो रही है। तुम कहाँ से आ रहे हो और बहुत प्रसन्न दिख रहे हो?
रावण ने कहा-'देवर्षि! मैंने आराधना करके शिव जी को प्रसन्न किया है।' यह कह कर रावण ने सारा वृत्तांत देवर्षि नारद के सामने प्रस्तुत कर दिया।
यह सुनकर नारद जी ने कहा-'राक्षसराज! शिव तो उन्मत हैं, तुम मेरे प्रिय शिष्य हो इसलिए कह रहा हूँ, तुम उस पर विश्वास मत करो और लौट कर उसके दिए हुए वरदान को प्रमाणित करने के लिए कैलाश पर्वत को उठाओ। यदि तुम उसे उठा लेते हो तो तुम्हारा अब तक का प्रयास सफल माना जाएगा।'
अभिमानी रावण देवर्षि नारद की बातों में आ गया और लौटकर कैलाश पर्वत उठाने लगा। ऎसी स्थिति देख कर शिव जी ने कहा-'यह क्या हो रहा है?
तब पार्वती जी ने हंसते हुए कहा-'आपका शिष्य आपको गुरु दक्षिणा दे रहा है। जो हो रहा है, वह ठीक ही है। 'यह अभिमानी रावण का कार्य है, ऎसा जानकर शिव जी ने उसे शाप देते हुए कहा-'अरे दुष्ट! शीघ्र ही तुम्हें मारने वाला उत्पन्न होगा।'
यह सुनकर नारद जी वीणा बजाते हुए चल दिए और रावण भी कैलाश पर्वत को वहीं रख कर विश्वस्त होकर चला गया।
वेद जननी गायत्री और नारद
प्रथम कल्प के प्रारंभ में स्वयभू मनु के प्रियव्रत और उत्तानपाद नाम से विख्यात दो पुत्र हुए। इनमें प्रियव्रत बड़े ही तपॊनिष्ठ, ज्ञानी, याज्ञिक तथा दान-दक्षिणा देने में अप्रतिम थे।
उन्होंने सप्त द्वीपों में अपना शासन स्थापित किया और भरत आदि अपने पुत्रों को वहाँ का अधिपति बनाया। तदुपरांत वे स्वयं विशालानगरी [बदरिकाश्रम ] में तपस्या करने लगे।
उनकी पतिव्रता तथा तपोनिष्ठता से प्रभावित होकर देवर्षि नारद एक दिन आकाश मार्ग से उनसे मिलने आए। उन्हे देखकर प्रियव्रत ने उनका पूर्ण निष्ठा से यथोचित स्वागत-सत्कार एवं अर्चन-पूजन किया।
तदुपरांत दोनो के मध्य पर्याप्त समय तक धर्म-ज्ञान, योग आदि विषयों पर विस्तृत वार्ता होती रही।
अंत मे प्रियव्रत ने नारद जी से पूछा - 'देवर्षि आप सर्वज्ञ हैं तथा स्थान-स्थान पर भ्रमण करते रहते हैं। कृपया यह बताइए कि आपने किसी काल में कोई विचित्र या अद्भुत घटना देखी है।"
कुछ क्षण चुप रहकर नारद जी बोले - 'राजन, संयोग की बात है कि कल ही जब मैं श्वेत द्वीप गया तो एक अति अद्भुत घटना घटित हुई, उसे मैं आपको सुनाता हूँ। सुनिये -
श्वेत द्वीप मे एक सुन्दर सरोवर है। जब मैं उस सरोवर के निकट पहुंँचा तो मैने अनेक खिले हुए कमल-पुष्प उसमे देखे। उस सरोवर के तट पर एक अति रुपवती एवं दीर्घनयना सुन्दरी चुपचाप खड़ी थी।
उसे वहाँ देखकर मुझे बहुत विस्मय हुआ और मैने उसके निकट पहुँचकर उसका परिचय जानना चाहा।
इस पर उस सुन्दरी ने कोई उत्तर तो नहीं दिया किन्तु उसने मेरी ओर जिस प्रकार देखा उससे मुझे लगा कि शास्त्र, योग, वेद-वेदांग आदि का मेरा सम्पुर्ण ज्ञान लुप्त हो गया है।
मेरी समझ मे नही आया कि यह सब क्या हो रहा है अतः मैने उस सुन्दरी की शरण ग्रहण की।
उस स्थिति मे मैने उसके शरीर मे एक अद्भुत एवं दिव्य लोकायुक्त तेजस्वी पुरुष को विद्यमान देखा।
उस पुरुष के शरीर मे वैसे ही एक अन्य पुरुष को और उस दूसरे पुरुष के शरीर मे तीसरे दिव्य पुरुष को देखा। कुछ क्षण उपरान्त वे सब लुप्त हो गए।
इस अदभुत दृश्य ने मुझे विस्मय-विमूढ कर दिया।
तब मैंने उस दिव्यांगना से प्रश्न किया-सुभगे, मुझे यह बतलाओं कि अकस्मात ही मेरा सम्पूर्ण ज्ञान लुप्त क्यों हो गया है? इस पर वह बोली कि मैं वेदों की जननी सावित्री हूँ।
तुम मुझे नहीं पहचान सके। अतः मैंने तुम्हारा सब ज्ञान अपहृत कर लिया है। मेरे शरीर में प्रकट होने वाले तीन पुरुष तीन वेद थे।
प्रथम ऋग्वेद-स्वयं भगवान के रूप में है।
यह वेद अग्निमय है तथा इसका समस्वर पाठ करने से सभी अधादि भस्म हो जाते हैं। नारायण रूप ऋग्वेद से उत्पन्न दूसरे पुरुष यजुर्वेद हैं जो साक्षात ब्रह्मा हैं।
तृतीय सामवेद रूप भगवान शंकर हैं तथा स्मरण करने मात्र से शीघ्र ही सुर्यवत सम्पूर्ण पाप-तिमिर को नष्ट कर देते हैं।
सावित्री देवी ने यह सब बताने के उपरांत नारद जी को संबोधित करते हुए कहा-'हे महर्षि! मैंने यह सम्पूर्ण वृत्तांत केवल इसलिए सुनाया है क्योंकि तुम, ब्रह्मा के पुत्रों में अतिश्रेष्ठ एवं परमज्ञानी हो।
अब अपने ज्ञान को पुनः प्राप्त करने हेतु तुम इस वेद-सरोवर में स्नान करो। इस स्नान से तुम्हें अपने पूर्वजन्म की स्मृति भी हो जाएगी।
नारद जी बोले-हे राजन! इतना कहकर वह सुन्दरी वहीं अंतर्धान हो गई और मैं स्नानादि से निवृत होकर यहाँ आ गया हूँ।
नारद जी से यह वृतांत सुनकर प्रियव्रत ने विस्मयाभिभूत होकर कहा-'देवर्षि!
आपका यह वृत्तांत सचमुच अति अदभुत है। अतः मेरे मन में आपके पूर्व जीवन का वृत्तांत जानने की इच्छा भी जाग्रत हो गई है।
आप मुझ पर परम कृपालु रहे हैं, अतः मेरी यह जिज्ञासा भी शांत कीजिए।'
नारद जी ने कहा-'हे महाभागा! उस वेद सरोवर में स्नान करते ही मुझे अपने ज्ञान की पुनः प्राप्ति तो हुई ही, साथ ही अपने विगत जन्मों की स्मृतियां भी जाग्रत हो गई। आपकी जिज्ञासा शांत करने हेतु मैं अपने पूर्व जीवन के विषय में आपको बतलाता हूँ।
हे राजन! द्वितीय सत्ययुग में, मैं मानव-योनि में जन्मा था। उस समय मेरा नाम सारस्वत था तथा मैं एक सुसंपन्न ब्राह्मण था। मैं अवंती नामक नगरी में परिजनों के साथ सुख-शांति से जीवन यापन करता था।
एक समय मैं एकांत में बैठा हुआ था कि तभी मेरे मन में वैराग्य भाव का उदय हुआ।
मैंने सोचा कि यह संसार तो व्यर्थ एवं निस्सार तथा नाशवान है।
अतः मुझे अपनी सम्पूर्ण सम्पदा पुत्रों को सौंप कर तपस्या में लग जाना चाहिए।
इस विचार के औचित्य-अनौचित्य पर विचार करने हेतु मैं भगवान की शरण में गया और उनकी प्रेरणा से यज्ञ, श्राद्ध तथा दान कर्मों में प्रवृत्त हो सबको संतुष्ट करके तथा सब प्रकार से निश्चिंत होकर मैं पुष्कर तीर्थ में[जो उस समय सारस्वत सरोवर के नाम से प्रसिद्ध था ] तपस्या करने लगा।
मैं निरंतर नारायण-मंत्र तथा ब्रह्मपार स्तोत्र का जाप करता था।
मेरी इस भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान श्रीहरि ने मुझे साक्षात दर्शन दिए और मुझसे वर मांगने को कहा। मैंने कहा-'हे प्रभो! आप मुझे अपने शरीर में विलय करने की कृपा कीजिए। इस पर वे बोले-अभी तुम्हें शरीर त्याग करने की आवश्यकता नहीं है।
अतः मुझमें विलय होने की इच्छा मत करो। तुम्हारी भक्ति तथा इससे पूर्व पितरों को जल[नार ] अर्पित करने से मैं तुम पर परम प्रसन्न हूँ।
अतः वरदान देता हूँ कि तुम नारद नाम से विख्यात होगे।
यह कहकर सनातन ईश अंतर्धान हो गए तथा मैं यथापूर्व भक्ति-भाव से साथ उपासना में लगा रहा और समय पूर्ण होने पर शरीर त्याग कर ब्रह्मलोक का अधिकारी बना।
ब्रह्मा जी के प्रथम दिवस का शुभारंभ होने पर मैंने भी उनके मानस-पुत्र के रूप में जन्म ग्रहण किया और नारद नाम पाया। अन्य देवगण भी उसी दिन उत्पन्न हुए।
राम वन-गमन
माता के चरण छूकर राम ने वन जाने की आज्ञा माँगी।
कौशल्या ने कहा--.“मैं तुम्हें बन जाने से रोकती हूँ। तुम्हारे पिता कैकेयी के बहकावे में आ गए हैं।
जब तुमने कोई अपराध ही नहीं किया, तब वन क्यों जाओ।
राजा की आज्ञा अनुचित है। उसे मत मानो।''
राम ने नम्रता से उत्तर दिया--“माँ ! पिता की आज्ञा मुझे माननी चाहिए और तुम्हें भी माननी चाहिए।
उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना मेरी शक्ति के बाहर है। अब मुझे वन जाने की अनुमति दो और आशीर्वाद दो।”” लक्ष्मण से उन्होंने कहा--'' भैया !
भाग्यवश जीवन में ऐसे उलट-पफेर, उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। इसमें किसी का दोष नहीं--न राजा का और न माता कैकेयी का।”'।
भाग्य की बात लक्ष्मण को बिल्कुल अच्छी नहीं लगी। वे तमककर बोले- '' भाग्य के भरोसे तो जीना कायरों का काम है।
जीवन उसी का सफल है, जो अपने भरोसे जीता है।
अपने बाहुबल से आप राज-सिंहासन पर बैठें। अगर किसी ने विरोध किया तो मैं अयोध्या में आग की वर्षा कर दूँगा। श्रीराम ने लक्ष्मण को समझाया- मेरे लिए जैसा राजसिंहांसन वैसा ही बन। अधर्म का राज्य मुझे नहीं चाहिए। तुम जो कह रहे हो, वह आयों के अनुकूल व्यवहार नहीं है।
लक्ष्मण चुप हो गए, कौशल्या रोकर राम से लिपट गई और कहने लगी, जाते ही हो तो मुझे साथ, ले चलो। राम ने उन्हें समझा-बुझाकर शांत किया,और वन जाने की: अनुमति माँगी।
माता ने कहा-- बेटा ! जाओ, जिस धर्म का तुम पालन कर रहे हो, वहीः तुम्हारी! रक्षा करे।
मेरे ब्रत-पूजन का सब फल तुम्हें मिले, सब दिशाएँ तुम्हारे लिए मंगलम्य हों, मेरा रोम-रोम तुम्हें आशीर्वाद देता है।''
माता से।विदा लेकर राम सीता के पास गए।
सारा हाल बताक़र सीता से भी उन्होंने विदा माँगी, यह भी-कहा कि माता बूढ़ी हैं, उनकी देखभाल करना और,भरत का रुख देखकर काम करना। वे कुल्-के भी स्वामी होंगे।और राजा भी। उनके सामने मेरी प्रशंसा भूलकर भी न करना, क्योंकि प्रभुतावाले लोग अपने सामने दूसरों की प्रशंसा सहन नहीं कर सकते।
चौदह वर्ष बाद हम तुम फिर मिलेंगे।
इस समाचार से सीता व्याकुल हो गई, फिर सँभलकर बोली- मुझे छाया की भाँति तुम्हारे साथ रहने का पिता से आदेश मिला है। इसे तुम जानते ही हो। मैं भी वन को चलूँगी। राम ने उन्हें बहुत तरह से समझाया-बुझाया। जब वे किसी तरह न मानीं, तो राम ने कहा - तुरंत चलने के लिए तैयार हो जाओ। तभी लक्ष्मण भी वहाँ आ गए और उन्होंने भी साथ चलने . का आग्रह किया। अंत में राम को उन्हें भी साथ चलने की अनुमति देनी पड़ी।
लक्ष्मण से उन्होंने कहा; माता से अनुमति लेकर गुरु वशिष्ठ के घंर जाओ.। वहाँ से मेरे सुरक्षित दिव्य अस्त्र-शस्त्र ले आओ।
माता से अनुमति लेकर और गुरु के यहाँ से अस्त्र-शस्त्र लेकर लक्ष्मण लौट आए। इधर। श्रीराम ने अपना और सीता का सारा सामान ब्राह्मणों और सेवकों को बाँट दिया। सीता और लक्ष्मण को लेकर वे पिता के पास विदाई के लिए चल दिए।
सीय सकुच बस उतरु न देई, सो सनि तमकि उठी केकेई। लोग बिकल मुरुछित नरनाहू, काह करिअ कछ सूझ न काहू॥
राम वन - गमन का समाचार सारी- अयोध्या में फैल चुका था | राम-लक्ष्मण और सीता को के महल की ओर जाते देखकर नगरवासी दशरथ और केकेयी को धिक्कारने लगे। उधर राजा
महल में राजा दुःख से तड़प रहे थे। उन्होंने कौशल्या और सुमित्रा को अपने पांस बुला लिया था। राम ने सबसे विदा माँगी। राजा ने उठने को कोशिश की, पर वे गिर पड़े और मूर्च्छित हो गए। जब उनकी मूर्च्छा जगी तो राम ने विंदा माँगी और कहा--.''सीता और लक्ष्मण भी मेरे
साथ जाने का आग्रह कर रहे हैं। हमलोगों के लिए आप शोक न करें।
राजा दशरथ ने कहा-...' बेटा, केकेयी ने मेरी मति हर ली है | मुझे पकड़कर बंदीघर में डाल दो ओर अयोध्या के राजा बन जाओ। राम ने बड़ी नम्रता से कहा-...'' पिताजी, मुझे राज्य लोभ बिल्कुल नहीं है। यदि में वन न जाऊँ तो आपका वचन भी मिथ्या होगा। रघुकुल की रीति मिट जाएगी। मुझे वन जाने दीजिए। कैकेयी बीच-बीच में राजा दशरथ को फटकारती जाती थी।
राम को छाती से लगाकर राजा मू्च्छित हो गए | इतने में केकेयी वल्कल वस्त्र ले आई और राम से बोली-..“'लो, इन्हें पहनकर वन को जाओ।”!
राम ने राजसी वस्त्र उतार दिए और वल्कल वस्त्र पहन लिए | सीता को भी कैकेयी ने तपस्विनी के वस्त्र दिए। यह देखकर लोग राजा दशरथ और कैकेयी को तरह-तरह से धिक्कारने लगे। सीता से लिपटकर रानियाँ रोने लगीं | राजा भी अपना सिर नीचे कर रोने लगे। सुमित्रा ने लक्ष्मण को आशीर्वाद दिया और कहा--''सीता-राम को ही तुम अपना माता-पिता समझना।
इनकी रक्षा के लिए अपने प्राण देने से भी न हिचकना। जाओ, वीर पुत्र ! जाओ ! निश्चित होकर सीता-राम के साथ जाओ।'' राम ने तब फिर अनुमति माँगी और सीता तथा लक्ष्मण को साथ लेकर वे चल दिए। अंतःपुर की सब स्त्रियाँ रोती-बिलखती उनके पीछे-पीछे चलीं।
नगर के द्वार पर सुमंत रथ लिए खड़े थे। राम, लक्ष्मण और सीता रथ पर चढ़ गए। राम के आदेश से सुमंत ने वेग से रथ हाँका--प्रजा और रानियाँ रथ के पीछे दौड़ने लगीं। “राम ! राम !' मेरे राम ! हा लक्ष्मण ! हा सीता !' की पुकार दसों दिशाओं में फैल गई। अब राजा दशरथ को रथ की धूल भी दिखाई नहीं देती थी।
राजा हताश होकर गिर पड़े। रानियाँ उन्हें उठाकर कौशल्या के भवन में ले गईं | राजा कभी बेसुध हो जाते और कभी “राम ! राम !” कह चिल्ला उठते। सारी अयोध्या नगरी शोक-सागर में डूब गई। घर, बाजार और गलियों में सन्नाटा छा गया। मनुष्यों की तो क्या पशु-पक्षियों ने भी खाना-पीना छोड़ दिया।
उधर नगरवासियों की एक भारी भीड़ रथ के पीछे-पीछे दौड़ रही थी। समझाने-बुझाने पर भी जब लोग न लौटे, तब राम-लक्ष्मण भी रथ से उतरकर उनके साथ पैदल ही चलने लगे। संध्या होते-होते वे तमसा नदी के किनारे पहुँचे और उन्होंने वहीं रात बिताने का निश्चय किया। सीता और राम माता-पिता की याद करते हुए तृण-शय्या पर विश्राम करने लगे। कुछ दूर पर लक्ष्मण धनुष-बाण लेकर पहरा देने लगे। सुमंत भी उनके साथ जा बेठे।
थके-माँदे पुरवासी घोर निद्रा में सो गए। पहर रात रहते ही राम उठे और सुमंत से बोले “तात ! लोगों का कष्ट मुझसे नहीं देखा जाता। शीघ्र रथ तैयार करो और इस प्रकार रथ हाँको की जगने पर लोगों को पता न लगे कि रथ किधर गया।”'
सुमंत ने ऐसा ही किया।
सवेरा होने पर जब लांगों को आँखें खुलीं तो देखा कि राजकमार नहीं हैं। वे इधर-उधर दौड़कर उन्हें खोजने लगे, जब कहीं पता न लगा तो निराश होकर नगर को लौट गए।
शिव की सेना
दो बलशाली राक्षस थे-हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष। ये दोनों भाई थे। उन दोनों ने देवों पर चढाई कर इंद्रलोक को जीत लिया। मगर समय की गति बलवान है। हिरण्याक्ष एक नौका दुर्घटना में मारा गया और हिरण्यकशिपु को नृसिंह देव ने मारा था। हिरण्यकशिपु के मरने के बाद उसका बेटा प्रहलाद सिंहासन पर बैठा, मगर भगवान भक्त प्रहलाद को हिरण्याक्ष के बेटे अंधक ने हराकर उससे राज्य छीन लिया।
अंधक ने प्रहलाद को बंदी बना लिया और स्वयं असुरों का राजा बन बैठा। अंधक के मन में देवों के लिए पुराना बैर था। उसने अपनी सेना की शक्ति बढा ली और अमरावती पर चढाई करने की तैयारी करने लगा। इंद्र को यह बात पता चली, तो वह चिंतित हो उठा। इंद्र जानता था कि अकेले देव इतने शक्तिशाली नहीं हैं जो अंधक और उसकी विशाल सेना का सामना कर सकें। इसीलिए इंद्र ने निश्चय किया कि वह मनु की प्रतापी संतानों को अपनी सहायता के लिए बुलाए। उस समय धरती पर दक्ष प्रजापति जैसे प्रतापी राजा थे।
इंद्र ने नारद जी को बुलाया और कहा-'नारद जी, तुम अश्विनी कुमार और दक्ष प्रजापति के पास जाओ। देवों पर विपत्ति के बादल घिरे हैं। उनसे कहो कि इस युद्ध में वह हमारी सहायता करें।'
प्रजापति दक्ष की राजधानी महान नदी सरस्वती के तट पर थी। नारद और उनके साथी वहाँ पहुँचे। शाम का समय था। उन्हें पता चला कि इस समय दक्ष अपनी बड़ी बेटी सती और पत्नी वीरिणी के साथ सरस्वती तट पर घूमने गए हैं। देवर्षि नारद ने सोचा-'जरूरी काम है। महल में बैठकर प्रतीक्षा करने में विलम्ब हो जाएगा।' इसीलिए वह दक्ष से मिलने नदी तट की ओर ही चल पड़े।
कुछ दूर चलने पर ही उन्होंने एक तेजस्वी पुरुष को नदी के तट पर टहलते हुए देखा, उनके बगल में एक प्रौढा और एक युवती भी चल रही थी। युवती की सुन्दरता देखकर अतिरथ बोला-'नारद जी, यह अप्सराओं में श्रेष्ठ युवती यहाँ कैसे आ गई?' नारद जी हंस कर बोले-'मित्र, यह प्रजापति दक्ष की बड़ी पुत्री सती है। कुछ ही दिनों में इसका विवाह होने वाला है। पता नहीं, किस भाग्यशाली को यह वरण करेगी और दूसरी है दक्ष की पत्नी वीरिणी।'
यह कहकर नारद जी आगे बढे और दक्ष के पीछे जाकर बोले-'दक्ष प्रजापति मैं नारद, देवलोक से आया हूँ।
दक्ष ने पूछा-'कहो, देवराज इंद्र तो कुशल हैं। अमरावती के क्या हाल-चाल हैं? नारद जी ने कहा-'देवराज तो कुशल हैं, किन्तु एक संकट इंद्रलोक पर मंडरा रहा है। इसी कारण मैं इंद्र का संदेश लेकर यहाँ आया हूँ।
इसके बाद नारद जी ने अंधक के हमले के संभावित खतरे की बात बताते हुए कहा-'देवता एक युद्ध में उससे हार चुके हैं। वह फिर आगे बढता चला आ रहा है।'
दक्ष बोले-'इंद्र की सहायता करना मेरा सौभाग्य होगा। मैं सेना सहित जरूर जाऊंगा। दक्ष ही आशा थे, जो मान गए, फिर नारद जी ने कहा हमने धरती के दूसरे राजाओं को भी बुलवाया है। आपकी नजरों में ऎसा कौन है, जिसकी सहायता हमारे लिए जरूरी है।'
दक्ष ने कहा-'एक विलक्षण व्यक्ति है, जिसका प्रभाव जन जातियों पर बहुत है। वह शिव के नाम से जाने जाते हैं। सब मनुष्य उन्हें देवाधिदेव मानकर पूजते हैं। तप, बुद्धि और योग में उनसे बढकर कोई नहीं। यदि वह इंद्र की सहायता करने को तैयार हो जाएं, तो देवों की निश्चय विजय होगी।'
'मुझे विश्वास है कि नारद यह कार्य अवश्य कर पाएंगे।' अतिरथ ने कहा।
दक्ष ने मुस्कराकर कहा-'मैं नारद जी के गुणॊं से भलीभांति परिचित हूँ, पर तुम शिव को नहीं जानते। वह प्रकांड पंडित हैं। वह महान शिल्पी भी हैं। उन्हें अनेक सिद्धियां प्राप्त हैं। उनकी नगरी काशी इस धरती की अनुपम नगरी है। असुर,नाग, यक्ष और गंधार्व उनकी पूजा करते हैं।"
दक्ष की बात का सभी पर प्रभाव पड़ा। सती ने पूछा- "पिता जी, अगर ऎसा व्यक्ति हमारी सहायता करे, तो विजय निश्चित ही है।"
नारद जी ने शंका प्रकट की- "मैंने शिव का नाम सुना है, मगर वह तो असुरों के पक्षपाती हैं।"
"नहीं, ऎसा नही है। शिव देव और असुरों से अलग हैं। देव उनसे घबराते हैं। इसीलिए उनसे अलग रहते हैं, मगर असुर बड़े चतुर हैं। असुर उनकी शरण में जाकर उनसे वरदान पाते रहते हैं। इसी से वे बलशाली बने हैं।' दक्ष ने कहा।
सती ने फिर पूछा-'देवों ने उन्हें प्रसन्न क्यों नहीं किया?
यह सुनकर दक्ष गंभीर हो गए। बोले-'देव अहंकार में डूबे रहे। मगर यह सत्य है कि यदि शिव प्रसन्न हो गए, तो देवासुर संग्राम हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगा।
दक्ष को यह पता नहीं था कि उनकी बात का सती पर क्या प्रभाव पड़ रहा है। वास्तव में शिव की महानता सुनकर सती अनजाने में शिव की ओर आकर्षित हो रही थीं।
नारद जी ने दक्ष से कहा-'प्रजापति! मैं पूरा प्रयत्न करूंगा कि शिव को देवों की ओर कर सकूं। मगर यह बताओ कि शिव कहा मिलेंगे? क्या हम काशी जाएं?
दक्ष ने कहा-'तुम काशी की ओर जाओ। क्या पता रास्ते में ही शिव मिल जाएं। लोगों का यही कहना है कि शिव को मन में याद करो, तो वह मिल जाते हैं।
देवर्षि नारद ने अपने साथियों के साथ काशी की ओर प्रस्थान कर दिया। आगे एक घना जंगल था। सहसा एक जगह बहुत से स्त्री-पुरुषॊं ने उन्हें घेर लिया। उनके हाथों में तेज धार वाले हथियार थे। दक्ष ने अपना एक सेवक रास्ता दिखाने के लिए उनके साथ भेजा था। उसका नाम करंथ था। करंथ ने उन लोगों से उन्हीं की भाषा में कहा-'हम आपके मित्र हैं। हम महान योगीराज शिव के भक्त हैं। उनसे मिलने जा रहे हैं।
शिव का नाम सुनते ही उन लोगों ने अपने हथियार नीचे कर लिए। फिर उनके मुखिया ने पूछा-'तुम लोग शिव के पास क्यों जा रहे हो?
नारद जी ने मुखिया से कहा-'हम पर भीषण आपत्ति आ पड़ी है। हम शिव की सहायता लेने आए हैं। हमें शिव कहाँ मिलेंगे?
मुखिया ने कहा-'यह तो मुझे भी पता नहीं। फिर भी मैं आप लोगों का संदेश बस्ती-बस्ती पहुँचाए देता हूँ। हो सकता है कि शिव तक यह संदेश पहुँच जाए।' और सचमुच हुआ भी यहीं। अगले दिन वे एक बस्ती में थे, तभी 'जय महादेव' का नारा गूंज उठा। नारद ने देखा कि बाघम्बर पहने एक तेजस्वी पुरुष हाथ में त्रिशूल लिए चले आ रहे थे। उनके विशाल नेत्रों से इतना तेज टपक रहा है कि दृष्टि बरबस नीचे झुक जाती थी। उन्हें देखते ही सब प्राणियों ने जमीन पर लेटकर उन्हें प्रणाम किया।
शिव आगे बढे और नारद जी के पास जाकर बोले-'कहो नारद, कैसे आना हुआ? नारद जी ने हाथ जोड़ कहा-'भगवन! देवों पर भयंकर विपत्ति आ रही है। मुझे इंद्र ने भेजा है। आप ही देवों की रक्षा करें।
यह सुनकर शिव हंसकर बोले-'हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु से हारकर देवों को अब इस मानवलोक की याद आई है।'
भगवान शिव की बात सुनकर नारद का सिर झुक गया। शिव फिर बोले-'मैं जानता हूँ कि शक्ति पाकर असुर अन्यायी हो उठे हैं। किन्तु याद रखना-यह धरती सभी की है। वेद, असुर, मानव सभी इस धरती पर मिलकर रहेंगे।'
नारद जी बोले-'हम भी यही चाहते हैं भगवान!"
शिव फिर हंसे और बोले-'नारद, अंधक का काल उसके उपर नाच उठा है। मैं युद्ध में जाऊंगा। यह कहकर शिव चले गए। पता ही नहीं चला कि क्षण में वे कहाँ लोप हो गए।
शीघ्र ही एक विशाल घाटी में दोनों सेनाओं की मुठभेड़ हो गई। अंधक विशाल सेना लेकर आया था। उधर देवों की शक्ति भी कम न थी। शिव का त्रिशूल अनेक योद्धाओं का रक्त पी चुका था उनकी सेना भूतों के समान शत्रु सेना में घुस गई। वे भयानक संहार कर रहे थे। तभी शिव ने इंद्र की ओर इशारा किया। इंद्र तुरंत आए। शिव बोले-'देवराज, इतनी हत्या व्यर्थ है। हमारा उद्देश्य शत्रु को हराना है। व्यर्थ रक्त बहाना नहीं।'
इंद्र की समझ में कुछ नहीं आया। शिव ने त्रिशूल छोड़कर धनुष उठा लिया। फिर बोले-अंधक कहाँ है? मुझे बताओ।'
शिव का रौद्र रूप देखकर इंद्र भी कांप उठे। बोले-'भगवन वह बिजली के समान अश्व पर मुकुट लगाए, जो तेजी से मार-काट मचाता घूम रहा है, वही अंधक है। लेकिन वह दूर है। निशाना लगाना कठिन है।
शिव ने मुस्कुराकर इंद्र की ओर देखा। फिर प्रत्यंचा खींच कर बाण छोड़ दिया। बाण बाज पक्षी की तरह लपका और पलभर में अंधक का सिर जमीन पर लोटने लगा।
युद्ध समाप्त हो गया। इंद्र प्रसन्न था। वह शिव को धन्यवाद देने के लिए देवों को लेकर चला, मगर तभी उसे मालूम हुआ कि शिव अपनी सेना के साथ अंतर्धान हो गए.
इस युद्ध के बाद सभी देव जुटे। सभी ने देवासुर संग्राम में दक्ष प्रजापति की वीरता की सराहना की और उन्हें धन्यवाद दिया।
देवर्षि नारद बोले-'देवराज! हमें दक्ष प्रजापति की नहीं, भगवान शिव का धन्यवाद करना चाहिए। युद्ध में विजय हमें उन्हीं के कारण मिली।
भस्म हुआ भस्मासुर
एक बार देवर्षि नारद भूमण्डल में घूम रहे थे तो उन्हें वृकासुर नामक राक्षस मिला।
नारद को देखते ही उनसे कहा-'देवर्षि! आप अच्छे अवसर पर आए।
मैं आपसे एक सलाह लेना चाहता हूँ। बताइए ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कौन देवता ऎसे हैं जो शीघ्र और थोड़ी ही तपस्या में प्रसन्न हो जाते हैं?'
नारद ने सोचा, यह असुर इस समय जैसा अपना जीवन बिता रहा है, आगे भी ऎसे ही बिता सकता है, पर लगता है अब यह त्रयदेवों में किसी की विशेष आराधना कर बलशाली होना चाहता है।
वर पाने के बाद इसकी आसुरी शक्ति बहुत ही प्रबल हो जाएगी। फिर यह ब्राह्मणॊं, ऋषियों तथा देवॊं को सताया करेगा। नारद यह सोच तो रहे थे, पर वृकासुर के प्रश्न का उत्तर टालने का मतलब था, अपने लिए संकट पैदा करना।
यह सोच विचार करके देवर्षि नारद ने वृकासुर से कहा-'वृकासुर, वैसे तो तीनों देवों में से तुम किसी की भी तपस्या कर अपना मनोरथ पूरा कर सकते हो।
ब्रह्मा और विष्णु जल्दी प्रसन्न नहीं होते, उनके लिए बहुत वर्षों तक कठिन तपस्या करनी पड़ती है।
यह भी हो सकता है कि तुम्हारी आयु समाप्त हो जाए और तपस्या पूरी न हो।
हाँ, भगवान शंकर ही ऎसे हैं जो थोड़ी आराधना से ही प्रसन्न हो जाते हैं। औधड़दानी तो ऎसे कि अपने भक्त की इच्छा की पूर्ति के लिए कुछ सोच-विचार ही नहीं करते। भक्त ने जो मांगा तत्काल दे दिया। तुम्हारी ही जाति के रावण तथा वाणासुर ने भगवान शिव की तपस्या से कितना वरदानी वर पाया था। अब तुम स्वयं विचार कर लो कि किसकी आराधना करनी चाहिए, जिससे शीघ्र फल मिले।'
नारद जी के मुख से ऎसी बात सुनकर वृकासुर ने भगवान शंकर की ही आराधना करने का निश्चय किया और हिमालय के केदार क्षेत्र में जाकर शिव की आराधना करने लगा। उसकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट होकर बोले-'वत्स, मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ। निःसंकोच कहो, क्या चाहते हो, वर मांगो।'
वृकासुर हाथ जोड़कर बोला-'प्रभु! नारद ने कहा था कि आप शीघ्र ही प्रसन्न होकर वर देते हैं, पर इतने वर्षों की आराधना के बाद आपने दर्शन दिए। आप शीघ्र प्रसन्न नहीं हुए, इसका मतलब नारद ने मेरे साथ छल किया। अब आप प्रसन्न होकर वर देना चाहते हैं तो मैं भी वैसा ही कठिन वर चाहता हूँ। आप कृपा कर मुझे 'मारण-वर' दीजिए।
मैं जिस किसी प्राणी के सिर पर मात्र हाथ भर रख दूं, उसी का प्राणान्त हो जाए। आप प्रसन्न हैं तो यही वर दीजिए।' शंकर जी वृकासुर की यह आसुरी मांग सुनकर हतप्रभ हो गए। पर देवता का वचन था, पूरा करना था, अन्यथा मर्यादा नष्ट होती। बोले-'जाओ, ऎसा ही होगा। तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी।'
वृकासुर बोला-'प्रभो! आपका यह वर सत्य है या नहीं, इसकी परीक्षा लेना चाहता हूँ। इसलिए पहले आपके सिर पर ही हाथ रख कर देखता हूँ कि इस वर में कितनी सत्यता है?'
असुर की ऎसी बात सुनकर भगवान शंकर अपने ही जाल में फंस गए। अब क्या करें? वह राक्षस न कुछ सुनेगा न मानेगा-ऎसा सोच कर भगवान शंकर भागे। शंकर को भागता देख उसका क्रोध बढ गया, वह उनका पीछा करने लगा। कहने लगा-'नारद की तरह आपने भी मुझसे छल किया है। वरदान की परीक्षा से डर कर क्यों भाग रहे हो?'
भागते-भागते अंत में शिव विष्णुलोक पहुँचे और विष्णु को अपनी विपदा सुनाई। विष्णु ने हंस कर कहा-'बिना सोचे-विचारे वर देने का परिणाम अब पता चला। खुद ही प्राण बचाते भागते फिर रहे हो, बताओ मैं क्या करूं? आपके वर की सत्यता तो उसे सिद्ध करनी ही होगी। किसका सिर उसके आगे करूं? शिव ने कहा-'नारायण -नारायण, मुझे कोसने से मेरा संकट दूर नहीं होगा, कुछ करिए, अन्यथा वह यहाँ भी पहुँच जाएगा।
भगवान विष्णु ने योग माया से एक वृद्ध तेजस्वी ब्रह्मचारी का स्वरूप बनाया और उधर चल पड़े जिधर से वृकासुर आ रहा था। कुछ दूर जाने पर वृकासुर आता दिखाई दिया। आगे बढकर उसे प्रणाम कर कहा-'असुरराज! कहाँ भागे जा रहे हो, लगता है आप बहुत थक गए हैं। शरीर को विश्राम दीजिए। शरीर से ही सारे कार्य सिद्ध होते हैं। इसलिए इसे अधिक कष्ट मत दीजिए। आप सब प्रकार से समर्थ हैं, फिर भी मेरे योग्य कोई कार्य हो तो बताइए।'
एक तेजस्वी ब्रह्मचारी की बातें सुनकर वृकासुर ने शिव के वरदान तथा उसकी परीक्षा की बात बताई।
इतना सुनते ही ब्रह्मचारी हंसा-'असुरराज! तुम किसके वर की परीक्षा लेना चाहते हो? उस शिव की? जिसका अपना कोई घर-बार नहीं।
जो भूत-प्रेतों के साथ घूमता रहता है, वह भला किसी को क्या वर देगा। वर देने वाले तो दो ही देवता हैं, एक ब्रह्मा दूसरा विष्णु तुम उनकी आराधना करते।
शिव के पीछे बेकार दौड़ रहे हो। वर देने वाला तो स्वयं इतना शक्तिशाली होता है कि उसके वर का असर खुद उस पर नहीं हो सकता।
उन्होंने तो तुम्हें झूठ-मूठ का वर दिया है। तुम्हारी तपस्या तो व्यर्थ गई।' ब्रह्मचारी की ऎसी बात सुनकर वृकासुर बड़ा निराश हुआ। उसका मनोबल टूट गया। कहने लगा- 'मुझे तो देवर्षि नारद ने कहा था कि शिव की आराधना करो। वे शीघ्र ही प्रसन्न होकर मनचाहा वर दे सकते हैं।'
ब्रह्मचारी ने कहा-'तुम बड़े भोले हो, नारद पर विश्वास कर लिया। अरे वह तो ऎसा घुमक्कड़ साधु है जो सबको उल्टी ही सलाह देता है। उसकी सलाह से कभी किसी का भला होता ही नहीं। तुम्हें मेरी बात का विश्वास न हो तो खुद अपने ही सिर पर हाथ रख कर देखो, कि कैसे शिव ने तुम्हें झूठा वर देकर बहकाया है। उनकी झूठ की पोल न खुल जाए, इसलिए भाग गया।'
वृकासुर का मनोबल इतना टूट चुका था कि उसे उस ब्रह्मचारी की बात में विश्वास हो गया कि शिव ने भी उसके साथ छल किया-उसे झूठा वर दिया है।
उसका विवेक नष्ट हो गया। ऎसा सोचते हुए वर की सत्यता की परख करने के लिए उसने अपने ही सिर पर हाथ रख लिया। सिर पर हाथ रखते ही भयंकर अग्नि-पुंज प्रकट हुआ और वृकासुर उसमें भस्म होकर राख की ढेर बन गया। चूंकि वृकासुर स्वयं अपने हाथों भस्म हुआ था इसलिए इसका नाम भस्मासुर भी पड़ गया।
रामायण की रचना
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाष्वती समाः
यत् क्रौंच-मिथुनादेकमवधिः काम-मोहितम्
आदिकवि वाल्मीकि के मुख से अनायास निकला हुआ यह पहला श्लोक से उन्हें रामायण महाकाव्य लिखने की प्रेणना मिली।
एक दिन दोपहर के समय महर्षि वाल्मीकि तमसा नदी के किनारे प्रकृति की सुंदरता का आनंद ले रहे थे। बसंत उतर रहा था। पेड़ों की छाया सुखद लगने थी।
वन पर्वत सब हरे-भरे थे। तमसा मंद गति से बह रही थी। नदी का जल निर्मल था। उसमें तैरती हुई मछलियां चमक रही थीं और नदी ताल भी साफ़ दिखाई दे रहा था। हरे-भरे वन में भांति -भातिं के पक्षी कलरव कर रहे थे।
नदी के किनारे लंबी चोंचवाले चटकीले रंग के पक्षी एक पाँत में ध्यान लगाए बैठे थे। उनमें से कभी कोई तेजी से उड़ता और तीर की तरह पानी में चोंच डूबोकर कुछ पकड़कर ले जाता।
नदी तट की शोभा को देखकर महर्षि वाल्मीकि के मन में अपार हर्ष था। सहसा उनके कान में क्रौंच पक्षी की सुरीली ध्वनि पड़ी। आँख उठाई तो देखा क्रौंच पक्षी का एक जोड़ा नदी तट पर कल्लोल कर रहा है। क्रौंच कभी चोंच से एक दूसरे के पीठ सहलाते। कभी थोड़ा-सा उड़कर वे इधर-उधर बैठ जाते और फिर पास आकर खेलने लगते। महर्षि वाल्मीकि को ये क्रौंच बड़े प्यारे लग रहे थे।
इतने में नर क्रौंच को निषाद का तीर कहीं से आकर लगा और वह गिरकर छटपटाने लगा। पति की यह दशा देखकर क्रौंच बड़े करुण स्वर में रोने लगी। क्रौंच-मिथुन की यह दशा देखकर ऋषि का हृदय करुणा से भर गया। वे शोक-सागर में डूब गए। उनके हृदय की करुणा एक श्लोक में फूट पड़ी।
(हे निषाद! तू बहुत दिन तक प्रतिष्ठित न रह सकेगा, क्योंकि तूने क्रौंच के जोड़े में से प्रेममग्न नर पक्षी को मार डाला है। )
बड़ी देर तक वाल्मीकि शोक के कारण बेसुध-से रहे। जब वे स्थिरचित्त हुए, तब अपने प्रिय शिष्य भरद्वाज से बोले, भरद्वाज मेरे शोक-पीड़ित हृदय से वीणा के लय में गाने योग्य चार पदों और समान अक्षरों का यह वचन अनायास ही निकला है। मेरा मन कह रहा है कि अवश्य ही यह प्रसिद्ध होगा।
भरद्वाज ने यह श्लोक कंठाग्र कर लिया और गुरु को सुनाया।
इसे सुनकर वाल्मीकि बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने स्नान किया और वल्कल वस्त्र पहनकर शिष्य के साथ वे अपने आश्रम को चल दिए।
मार्ग में भी वाल्मीकि 'मा निषाद' गुनगुनाते चले जाते थे। उनका ध्यान श्लोक के अर्थ पर गया। अर्थबोध से उनका बड़ा दुःख हुआ। वे सोचने लगे कि मैंने व्यर्थ ही निषाद को इतना कठोर शाप दे दिया। इसी चिंता में मग्न वे चले जा रहे थे की उनको नारद जी की वाणी याद पड़ी।
एक बार नारद जी से उन्होंने पूछा था, हे देवर्षि! मुझे किसी ऐसे पुरुष का नाम बताइए जो गुणवान, बलवान और धर्मात्मा हो, जो सत्य पर दृढ रहता हो, अपने वचन का पक्का हो, सबका हित करने वाला हो, विद्वान हो और जिससे बढ़कर सुंदर कोई दूसरा न हो। नारद जी ने कहा था कि ऐसे एक ही पुरुष को मैं जानता हूँ।
वे इक्ष्वाकु वंश के राजा दशरथ के पुत्र राम हैं। वे सब तरह से गुणवान और रूपवान हैं और जब क्रोध करते हैं तब डर के मारे देवता और दानव भी काँप उठते हैं।
वाल्मीकि को ये सब बातें याद पड़ीं और रामायण की जो कथा नारद जी ने संक्षेप में सुनाई थी वह भी उनको याद आई यह याद आया कि देवर्षि देवलोक को आकाश मार्ग से किस अद्भुत गति से चले गए थे।
जब महाराज रामचंद्र की कथा वे दोहराने लगे तो सहसा माँ निषाद श्लोक का एक दूसरा अर्थ उनके मन में आया है माधव रामचंद्र !
तू अनेक वर्ष तक राज करेगा, क्योंकि तूने मंदोदरी-रावण जोड़े में से कामपीड़ित रावण को मार डाला है। यह अर्थ मन में आते ही उनकी चिंता मिट गई। परन्तु 'मा निषाद' श्लोक उनके मन से नहीं निकला। वे उसे प्रायः गुनगुनाते रहे।
एक दिन वाल्मीकि जब ध्यान में बैठे हुए 'मा निषाद' गुनगुना रहे थे, सृष्टि के रचयिता ब्रह्माजी ने उनको दर्शन दिए। ब्रह्माजी बोले ऋषिवर मेरी ही इच्छा से यह वाणी अनायास आपके मुहं से निकली है और श्लोक के रूप में इसलिए निकली है कि आप अनुष्टुप छन्दा में महाराज रामचंद्र के सम्पूर्ण चरित्र का वर्णन कीजिये।
श्रीराम की कथा संक्षेप में आप नारद जी ने सुन ही चुके हैं। मेरे आशीवार्द से राम, लक्ष्मण, सीता और राक्षसों का गुप्त अथवा प्रत्यक्ष सब वृत्तांत आपकी आँखों के सामने आ जाएगा, जो आगे होगा वह भी दिखाई पड़ेगा।
अतः जो आप लिखेंगे, वह यथार्थ और सत्य होगा। इस प्रकार आपकी लिखी हुई रामायण इस लोक में अम्र हो जाएगी।
इतना कहकर ब्रह्माजी अंतर्धान हो गए। वाल्मीकि श्लोकों में श्रीराम के चरित्र का वर्णन करने लगे। सब श्लोक मधुर और सुंदर थे। उनका अर्थ समझने में भी कोई कठनाई नहीं होती थी।
उनके सामने राम, लक्ष्मण सीता, दशरथ और दशरथ की रानियों का हंसना-बोलना, चलना-फिरना प्रत्यक्ष हो गया और वे बिना रुके रामायण की कथा लिखते रहे। चौबीस हजार श्लोकों में उन्होंने पूरी रामायण लिख डाली।
माया-जाल में फंसे नारद
एक बार नारद जी को यह अभिमान हो गया कि उसने बढ़कर इस पृथ्वी पर कोई दूसरा भगवान विष्णु का भक्त नहीं है।
उनका व्यवहार भी इस भावना से प्रेरित होकर कुछ बदलने लगा। वे भगवान के गुणों का गान करने के साथ-साथ अपने सेवा कार्यों का भी वर्णन करने लगे। भगवान से कोई बात छुपी थोड़े ही रहती है।
उन्हें तुरंत इस बात का पता चल गया। वे अपने भक्त का पतन भला कैसे देख सकते थे ?
इसलिए उन्होंने नारद को इस दुष्प्रवृति से बचाने का निर्णय किया।
एक दिन नारद जी और भगवान विष्णु साथ-साथ वन में जा रहे थे अचानक विष्णु जी एक वृक्ष के नीचे थककर बैठ गए और बोले - भई नारद जी, हम तो थक गए है, प्यास भी लगी है।
कहीं से पानी मिल जाए तो लाओ। हमसे तो प्यास के मारे चला नहीं जा रहा है।
यह सुनकर नारद जी तुरंत सावधान हो गए, उनके होते हुए भगवान भला प्यासे रहें। वे बोले 'भगवान' अभी लाया आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें।
नारद जी एक ओर दौड़ लिए। उनके जाते ही भगवान मुस्कराए और अपनी माया को नारद जी को सत्य के मार्ग पर लाने का आदेश दिया। माया शुरू हो गई।
नारद जी थोड़ी ही दूर गए होंगे कि उन्हें एक गाँव दिखाई पड़ा, जिसके बाहर कुँए पर कुछ युवा स्त्रियां पानी भर रही थी। कुँए के पास जब वे पहुंचे तो एक कन्या को देखकर अपनी सुध-बुध खो बैठे, बस उसे ही निहारने लगे।
वह यह भूल गए कि भगवान के लिए पानी लेने आए थे। कन्या भी नारद जी की भावना समझ गई। वह जल्दी-जल्दी जल से घड़ा भरकर अपनी सहेलियों को पीछे छोड़कर घर की ओर लपकी।
नारद जी भी उसके पीछे जो लिए। कन्या तो घर के अंदर चली गई लेकिन नारद जी ने द्वार पर खड़े होकर नारायण, नारायण का अलख जगाया।
गृहस्वामी नारायण का नाम सुनकर बाहर आया। उसने नारद जी को तुरंत पहचान लिया। अत्यंत विनम्रता और आदर के साथ वह नारद जी को घर के अंदर ले गया और उनके हाथ-पैर धोकर स्वच्छ आसन पर बिठाया तथा उनकी सेवा-सत्कार में कोई कमी न छोड़ी।
उनके आगमन से अपने को धन्य बताते हुए गृहस्वामी ने अपने योग्य सेवा के लिए आग्रह किया।
नारद जी बोले - आपके घर में जो आपकी कन्या जल का घरा लेकर अभी-अभी आई है, मैं उससे विवाह करना चाहता हूँ।
नारद जी की बात सुनकर गृहस्वामी एकदम चकित रह गया लेकिन उसे प्रसन्नता भी हुई कि मेरी कन्या एक ऐसे महान योगी तथा संत के पास जाएगी। उसने स्वीकृति प्रदान कर दी और नारद जी को अपने ही घर में रख लिया।
दो-चार दिन पश्चात शुभ-मुहूर्त में उसने अपनी कन्या का विवाह नारद जी के साथ कर दिया तथा उन्हें गाँव में ही उतनी धरती का टुकड़ा दे दिया खेती करके वे आराम से अपना और अपने परिवार का पेट भर सकें।
अब नारद जी की विणा एक खूंटी पर तंगी रहती, जिसकी ओर उनका ध्यान बहुत कम जाता। अपनी पत्नी के आगे नारायण को वे भूल गए।
दिन भर खेती में लगे रहते। कभी हल चलाते, कभी पानी देते, कभी बीज बोते, तो कभी निराई-गुड़ाई करते। जैसे-जैसे पौधे बढ़ते उनकी प्रसन्नता का पारावार न रहता।
फसलें हर वर्ष पकतीं, कटतीं, अनाज से उनके कोठार भर जाते। नारद जी गाँव के एक सम्पन्न किसान माने जाने लगे। वर्ष दर वर्ष बीतते चले गए और नारद जी की गृहस्ती भी बढ़ती चली गई। तीन-चार लड़के-लड़कियां भी हो गए। अब नारद जी को एक क्षण की भी फुरसत नहीं मिलती थी।
वे हर समय बच्चों के पालन-पोषण तथा पढ़ाई-लिखाई में लगे रहते अथवा खेत में काम करते रहते थे।
अचानक एक बार तेज बारिश हुई। जिसने की दिनों तक बंद होने का नाम ही नहीं लिया। बादलों की गरज और बिजली की कड़क ने सबके हृदय में भय उत्पन्न कर दिया। मूसलाधार वर्षा ने गाँव के पास बहने वाली नदी में बाढ़ की स्थिति पैदा कर दी।
चारों ओर पानी ही पानी फैला गया। कच्चे-पक्के सभी मकान ढ़हने लगे। घर का सामान बह गया। पशु भी डूब गए। उनके व्यक्ति मर गए।
गाँव में त्राहि-त्राहि मच गयी।
नारद अब क्या करें ? उन्होंने भी घर में जो थोड़ा कीमती सामान बचा था उसकी गठरी बाँधी और अपनी पत्नी तथा बच्चों को लेकर जान बचाने के लिए पानी में से होते हुए बाहर निकलने लगे।
नारद जी बगल में गठरी थामें, एक हाथ से एक बच्चे को पकड़े और दूसरे हाथ से अपनी पत्नी को संभाले हुए थे।
पत्नी भी एक बच्चे को गॉड में और एक का हाथ पकड़े धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी।
पानी का बहाव अत्यंत तेज था तथा यह भी पता नहीं चलता था कि कहाँ गड्ढा है और कहाँ टीला ? अचानक नारद जी ने ठोकर खायी और गठरी बगल से निकल कर बह गयी। नारद जी गठरी कैसे पकड़ते, दोनों हाथ तो घिरे थे। मन मसोसकर सोचा फिर कमा लेंगे। कुछ दूर जाने पर पत्नी एक गड्ढे में गिर पड़ी और गोद का बच्चा छूटकर बह गया। पत्नी बहुत रोयी, लेकिन क्या हो सकता था ?
धीरे-धीरे और दो बच्चे भी पानी में बह गए, उन्होंने बहुत कोशिश की बचाने की, लेकिन कुछ न हो सका। दोनों पति-पत्नी बड़े दुखी, रोते, कलपते, एक दूसरे को सांत्वना देते कोई ऊँची जगह ढूंढते रहे। एक जगह आगे चलकर दोनों एक गड्ढे में समा गए।
नारद जी तो किसी प्रकार गड्ढे में से निकल आए, मगर उनकी पत्नी का पता कहीं नहीं चला। बहुत देर तक नारद जी उसे इधर-उधर, दूर-दूर तक ढूंढते रहे लेकिन व्यर्थ रोते-रट उनका बुरा हाल था, हृदय पत्नी और बच्चों को याद कर करके फटा जा रहा था। उनकी तो साडी गृहस्थी उजड़ गई थी। बेचारे क्या करें, किसे कोंसे अपने भाग्य को या भगवान को ?
भगवान का ध्यान आते ही नारद जी के मस्तिष्क में प्रकाश फ़ैल गया और पुरानी सारी बातें याद आ गयीं। वे किस लिए आए थे और कहाँ आ गए ?
ओहो! भगवान विष्णु तो उनकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे। वे तो उनके लिए जल लेने आए थे और यहां गृहस्थी बसाकर बैठ गए।
वर्षों बीत गए, गृहस्थी को बसने में और फिर सब नष्ट हो गया। क्या भगवान अब भी मेरी प्रतीक्षा में उसी वृक्ष के नीचे बैठे होंगे ?
यह सोचते ही बाढ़ नदारद हो गयी। गाँव अंतर्धान हो गया। वे तो घने वन में खड़े थे।
नारद जी पछताते और शर्माते हुए दौड़े, देखा कुछ ही दूर पर उसी वृक्ष के निचे भगवान लेते हैं।
नारद जी को देखते ही उठ बैठे और बोले - अरे भाई नारद, कहा चले गए थे, बड़ी देर लगा दी।
पानी लाए या नहीं।
नारद जी भगवान के चरण पकड़ कर बैठ गए और लगे अश्रु बहाने।
उनके मुहं से एक बोल भी नहीं फूटा। भगवान मुस्कराए और बोले - तुम अभी तो गए थे। कुछ अधिक देर थोड़े ही हुई है।
लेकिन नारद जी को लगा था कि वर्षों बीत गए। अब उनकी समझ में आया यह सब भगवान की माया थी, जो उनके अभिमान को चूर-चूर करने के लिए पैदा हुई थी।
वे सोचने लगे, उन्हें बड़ा घमंड था कि उनसे बढ़कर त्रिलोक में दूसरा कोई भक्त नहीं है।
लेकिन एक स्त्री को देखकर वे भगवान को भूल गए, उसको पछतावा होने लगा और उनका घमंड जरा-सी देर में ढेर हो गया। वे पुनः सरलता और विनय के साथ भगवान के गुण गाने लगे।
ईश्वर पर विश्वास
ऋषिकेश में गंगा जी के किनारे एक संत रहा करते थे।
वह जन्मांध थे और उनका नित्य का एक नियम था कि वह शाम के समय ऊपर गगन चुंबी पहाड़ों में भ्रमण करने के लिये निकल जाते और हरी नाम का संकीर्तन करते जाते।
एक दिन उनके एक शिष्य ने उनसे पूछा बाबा आप हर रोज इतने ऊंचे ऊंचे पहाड़ों पर भ्रमण हेतु जाते हैं।
वहां बहुत गहरी गहरी खाइयां भी हैं।
और आपको आंखों से दिखलाई नहीं देता।
क्या आपको डर नहीं लगता ?
अगर कभी पांव लड़खड़ा गये तो ?
बाबा ने कुछ नहीं कहा और शाम के समय शिष्य को साथ ले चले।
पहाड़ों के मध्य थे तो बाबा ने शिष्य से कहा जैसे ही कोई गहरी खाई आये तो बताना।
दोनों चलते रहे और जैसे ही गहरी खाई आयी शिष्य ने बताया कि बाबा गहरी खाई आ चुकी है।
बाबा ने कहा मुझे इसमें धक्का दे दे।
अब तो शिष्य इतना सुनते ही सकपका गया।
उसने कहा बाबा मैं आपको धक्का कैसे दे सकता हूँ।
मैं ऐसा हरगिज नहीं कर सकता।
आप तो मेरे गुरुदेव हैं मैं तो किसी अपने शत्रु को भी इस खाई में नहीं धकेल सकता।
बाबा ने फिर कहा मैं कहता हूं कि मुझे इस खाई में धक्का दे दो।
यह मेरी आज्ञा है और मेरी आज्ञा की अवहेलना करोगे तो नर्क गामी होगे।
शिष्य ने कहा बाबा मैं नर्क भोग लूंगा मगर आपको हरगिज इस खाई में नहीं धकेल सकता।
तब बाबा ने शिष्य से कहा रे नादान बालक जब तुझ जैसा एक साधारण प्राणी मुझे खाई में नहीं धकेल सकता तो बता मेरा मालिक भला कैसे मुझे खाई में गिरने देगा।
उसे तो सिर्फ गिरे हुओं को उबारना आता है गिरे हुओं को उठाना आता है वह कभी भी किसी को गिरने नहीं देता।
वह पल पल हमारे साथ है बस हमें विश्वास रखना होगा उस पर।
तुलसी की पत्नी
तुलसीदास अपनी पत्नी रत्नावली से बहुत प्रेम करते थे और उनपर अत्याधिक मुग्ध थे।
पत्नी के प्रति उनकी आसक्ति की एक रोचक कथा बहुत प्रचलित है।
एक बार उनकी पत्नी मायके गई हुई थीं तो तुलसीदास वर्षा ऋतु में एक घनघोर अँधेरी रात जब मूसलाधार बरसात हो रही थी अपनी पत्नी से मिलने के लिए चल दिए।
मार्ग में उफनती नदी पड़ती थी। नदी में एक तैरती लाश को नाव समझ कर नदी पार कर गए।
तत्पश्चात् जब पत्नी के मायके पहुंचे तो खिड़की पर लटके सांप को देख उन्होंने सोचा शायद उनकी पत्नी ने उन्हीं के लिए रस्सी लटका रखी है यथा सांप को रस्सी समझ कर घर की छत पर चढ़ गए।
तुलसीदास की पत्नी रत्नावली बड़ी विदुषी थी, अपने पति के नस कृत्यों से बहुत लज्जित हुईं और उन्होंने तुलसीदास को ताना देते हुए कहा-
"हाड़ मांस को देह मम, तापर जितनी प्रीति।
तिसु आधो जो राम प्रति, अवसि मिटिहि भवभीति।।"
अर्थात् जितनी आसक्ति मेरे हांड़-मांस की देह से है, उसकी आधी भी भगवान राम के प्रति होती तो भवसागर पार हो जाते।
तुलसीदास ने पत्नी के इस उलाहने को गंभिरता से लिया।
इस उलाहने ने गोस्वामी तुलसीदास की जीवन दिशा और दशा परिवर्तित के डाली।
इसके पश्चात् वह राम भक्ति में ऐसे रमे के बस राम के ही हो गए।
पर्स में शिव जी का तस्वीर क्यों था
एक बार एक 50 साल का व्यक्ति बस में जा रहा था।
बस में उसका पर्स किसी ने चुरा लिया। व्यक्ति ने बस कंडक्टर से कहा भाई मेरा पर्स किसी ने चुरा लिया। कंडक्टर को एक पर्स मिला।
उसने उस व्यक्ति को बताया की उसे एक पर्स मिला तो है पर ये कैसे मान लिया जाये की यह पर्स तुम्हारा ही है।
उस व्यक्ति ने बताया की पर्स में एक भगवान् शिव (Lord Shiv ) की फोटो लगी है। कंडक्टर ने कहा भगवान् शिव ( Lord Shiv ) की फोटो तो किसी के भी पर्स में लगी हो सकती है।
व्यक्ति ने बताया की इस फोटो के पीछे बहुत लम्बी कहानी है।
कंडक्टर ने पूछा कैसी कहानी व्यक्ति ने बताया की यह पर्स बहुत ही पुराना है जब में 14 साल का था तो इस पर्स में मैं अपनी फोटो लगता था
और उसे देखकर बहुत खुश होता था की में कितना स्मार्ट हु।
फिर जब मेरी शादी हुई तो मेरी पत्नी की फोटो पर्स में लग गयी और बार बार फोटो देखकर सोचता की मेरी पत्नी कितनी अच्छी है।
फिर कुछ सालो बाद मेरे बच्चे हुए तो बच्चों की फोटो पर्स में आ गयी।
बच्चे बड़े हुए सब अपने अपने काम पर निकल गए और में अकेला रह गया।
तब मुझे भगवन की याद आई। और तब फिर मैंने भगवान् शिव की फोटो अपने पर्स में लगायी।
मैंने पुरे जीवन अपना प्यार बदलता रहा।
कभी अपने से, कभी पत्नी से, कभी बच्चों से और सब मुझे छोड़ गए अब एक भगवान् ही मेरे साथ हैं।
जिन्हे मैंने पुरे जीवन याद तक नहीं किया।
कंडक्टर ने पर्स व्यक्ति को दे दिया।
दोस्तों ऐसा हम सभी के साथ होता है जब कभी हमारे जीवन में कोई बढ़ी समस्या आती है तभी हमें भगवान् की याद आती है।
अपने जीवन में नियम बनकर अगर हम भगवान् को याद करते हैं तो हमारा जीवन आसान हो जाता है।
नारद ने दिया ध्रुव को नारायण मंत्र
राजा उत्तानपाद की दो रानियां थीं। बड़ी रानी का नाम सुनीति और छोटी रानी का नाम सुरुचि था। सुनीति के पुत्र का नाम ध्रुव था और सुरुचि के पुत्र का नाम उत्तम। राजा छोटी रानी और उसके पुत्र से विशेष स्नेह रखते थे, बेचारी सुनीति और बेटे ध्रुव की हमेशा उपेक्षा होती थी।
महल की परिचारिकाएं भी सुरुचि से प्रसन्न नहीं रहती थी। वे प्रायः घृणा से उसकी ओर देखती और बोलती "देखो, वो आ रही है रानि सुरुचि।"
"देखो तो कैसी अकड़ है, इसका तो बस एक ही लक्ष्य है कि किसी तरह से इनके पुत्र उत्तम को ही राजगद्दी मिले।"
सुरुचि अपने बेटे के पास गैइ तो वह बोला - 'माँ ! इस समय पिताजी खाली बैठे हैं। मैं जाकर उनकी गोदी मे बैठ जाऊं।'
'जरूर बैठो मेरे मुन्ने ! होने वाले राजा का उस गोद पर पूरा अधिकार है।' सुरुचि ने बेटे के सिर पर प्रेम से हाथ फिराते हुए कहा।
ध्रुव ने उत्तम को पिता की गोद मे बैठे देखा, तो वह भी उधर ही भागा और बोला- 'पिताजी, मैं भी आपकी गोद मे बैठुंगा।'
सुरुचि ने उसे झिड़का - 'हरगिज नहीं ! तुझे उस गोद मे बैठने का कोई अधिकार नहीं है। भाग जाओ यहां से।'
'मैं कहांँ जाऊं, छोटी माँ।' कल्पित होकर रुंआसे स्वर मे ध्रुव ने पूछा।
'जा, भगवान विष्णु से प्रार्थना कर कि तुझे मेरी कोख से जन्म दें तभी तू उत्तम की तरह अधिकार पा सकेगा।'
दुखी ध्रुव, बिलखता हुआ अपनी माँ के पास पहुंँचा। माँ ने उसे गोद मे उठाकर प्यार से पूछा 'रो क्यो रहा है मेरे लाल ?'
ध्रुव बोला- "माँ, माता सुरुचि कहती हैं कि पिता जी की गोद में बैठने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। वे कहती हैं कि केवल उत्तम ही पिता की गोद में बैठ सकता है।"
"वे ठीक कहती हैं, पुत्र!" सुनीति बोली और बेटे को कलेजे से लगाए भीतर ले गई। ध्रुव ने पूछा-'माँ, मैं तो क्षत्रिय राजकुमार हूँ ना?
हाँ, मेरे बेटे! सुनीति ने जवाब दिया।
अपनी मा की गोद में चैन से बैठा बालक ध्रुव कुछ सोचता रहा। फिर बोला-"माँ! माता सुरुचि ने कहा कि अगर पिता की गोद में बैठना चाहता हूँ तो भगवान विष्णु से प्रार्थना करनी पड़ेगी। क्या सचमुच भगवान विष्णु मेरी मदद करेंगे माँ?
हाँ, मेरे बेटे! भगवान शरणागत को कभी निराश नहीं करते।'
'तब तो मैं उनके दर्शन अवश्य करूंगा।' ध्रुव ने दृढ स्वर में कहा।
ध्रुव जब अगले दिन वन में जाने को तत्पर हुआ तो उसकी माता ने आशीर्वाद दिया, 'जाओ मेरे लाल, उनके सिवा और कोई हमारी मदद नहीं कर सकता। उनके दर्शन कर पाना सरल बात नहीं है, किंतु तुम सच्ची तपस्या करोगे तो अवश्य सफलता मिलेगी।'
'मुझे सफलता अवश्य मिलेगी माँ। बालक ध्रुव दृढ निश्चय के साथ बोला-'मैं जाता हूँ अब और भगवान विष्णु के दर्शन किए बिना नहीं लौटूंगा। फिर मैं अपने पिता और दादा से भी बड़ा राजा बनूंगा।' कहते हुए वह वन की ओर चल पड़ा।
उधर, देवर्षि नारद को सुरुचि के कटु वचनों और ध्रुव के संकल्प के बारे में पता चला तो उन्होंने सोचा, 'ध्रुव सच्चा क्षत्रिय है। अभी वह बालक मात्र ही है किंतु सौतेली माँ का दिया हुआ अपमान सह नहीं सका। पर बेचारा कैसा असंभव संकल्प कर बैठा है। चलकर उसे समझाना होगा। नारद ध्रुव के पास पहुँचे और बोले-'बेटे! अपने भाग्य से समझौता करके अपनी माँ के पास चले जाओ।'
बालक ध्रुव ने कहा-'हे देवर्षि नारद! मैं यशस्वी राजा उत्तानपाद का बेटा ध्रुव हूँ। मैं क्षत्रिय हूँ। मैंने भगवान विष्णु को प्रसन्न करने का दृढ निश्चय कर लिया है।'
नारद बोले-'मुझे मालूम है, वत्स! किंतु अभी तुम बहुत छोटे हो। भगवान् के दर्शन कर पाना बहुत कठिन बात है। तुम जरा बड़े हो जाओ, तब कोशिश करना।'
ध्रुव ने कहा-'क्षमा कीजिए देवर्षि! मैं अपना इरादा बदलने वाला नहीं। आप मेरा मार्गदर्शन कर दें तो आपकी अति कृपा होगी।'
देवर्षि नारद ध्रुव के निश्चय की दृढता से प्रसन्न होकर बोले-'यमुना तट पर एक स्थान है-मधुवन। तुम वहाँ जाकर तपस्या करोगे तो भगवान तुम्हें जरूर दर्शन देंगे।'
ध्रुव ने पूछा-हे मुनिवर! अब ये भी बता दीजिए कि तपस्या कैसे की जाती है?' तब नारद ने उसे समाधिस्थ होकर 'ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय' मंत्र का जाप करने को कहा और बोले-'बस इसी मंत्र को बार-बार दोहराकर ध्यान लगाना।'
तत्पश्चात ध्रुव तो मधुवन की ओर चल पड़ा और नारद राजा उत्तानपाद के पास पहुँचे। राजा ने नारद का बहुत सम्मान किया और एक ऊंचे आसन पर स्थान दिया।
नारद ने महसूस किया कि राजा ने यद्यपि बड़े आदर के साथ उनका सत्कार किया है, तथापि उनका चित्त कहीं और भटक रहा है। इस पर नारद जी ने पूछ लिया- राजन, आप किस चिंता में पड़ॆ है?
राजा ने कहा-'देवर्षि! मैं बहुत नीच और स्वार्थी हूँ। सुरुचि ने कर्कश वचनों का प्रयोग कर बेचारे ध्रुव को घर से भगा दिया और मैं अभागा कुछ भी नहीं बोला। हाय, वह बेचारा अकेला जंगलों में भटक रहा होगा। नन्हीं-सी जान को जंगली जानवर फाड़कर खा जाएंगे।'
नारद ने राजा को आश्वासन देते हुए कहा-'डरो मत राजन! स्वयं भगवान विष्णु तुम्हारे पुत्र की रक्षा करेंगे। वह तो तुम्हारे वंश का कुलदीपक है। वह शीघ्र ही लौट आएगा।'
ध्रुव मुधवन पहुँचा और एक वृक्ष के नीचे पत्थर की बनी भगवान की प्रतिमा के आगे समाधिस्थ होकर बैठ गया। उसने मन ही मन नारद के बताए मंत्र का जाप करना शुरू कर दिया। पहले महीने उसने केवल फल खाकर निर्वाह किया।
धीरे-धीरे उसने फल भी छोड़ दिए और केवल घास-पात खाने लगा। तीन महीने के बाद उसने घास-पात खाना भी छोड़ दिया और सिर्फ हवा के सहारे जिंदा रहने लगा। वह निरंतर 'ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय' का मंत्र दोहराता रहता।
पाँचवें महीने उसने सांस भी रोक ली और एक टांग पर खड़ॆ रहकर मंत्र जाप करता रहा। ध्रुव की कठिन तपस्या की शक्ति से पवन तक रुक गया। सारे स्वर्ग में त्राहि- त्राहि मच गई। धरती के लोग व्याकुल हो उठे और भगवान से रक्षा की प्रार्थना करने लगे। स्थिति असह्य हो उठी तो सभी देवता मिल कर भगवान विष्णु के पास पहुँचे और उनसे प्रार्थना की-'हे प्रभु, हमारी रक्षा कीजिए।'
भगवान श्रीहरि बोले-'हे देवगणॊं, इतने निराश मत हो। मैं पृथ्वी पर जाकर ध्रुव को उसका इच्छित वरदान दूंगा, तब सब ठीक हो जाएगा।
उधर, ध्रुव की तपस्या जारी थी। वह सोच रहा था, कि 'हे प्रभु कभी मुझे लगता है कि आप मुझे मिल गए, पर तभी आप अंतर्धान हो जाते हो। क्या मेरी पूजा अभी अधूरी है? आप मुझसे रुष्ट हो प्रभु तो मैं अपना तप फिर से नए सिरे से करूंगा।'
ध्रुव ने जैसे ही आँखें खोली, उसने साक्षात भगवान विष्णु को अपने सम्मुख खड़ॆ पाया। अब तो वह हर्ष के साथ जोर से चीख उठा और उनके पैरों में गिरकर बोला-'हे मेरे प्रभु! आखिर आपने मुझे दर्शन दे ही दिए।'
भगवान बोले-"ध्रुव, तुम मधुवन में क्यों आए हो, यह मुझे मालूम है। तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी। तुम महान राजा बनोगे। तुम छत्तीस हजार वर्ष तक राज्य करोगे। फिर तुम्हें स्वर्ग में स्थान मिलेगा, जहाँ तुम सदा के लिए अमर हो जाओगे।'
ध्रुव को आशीर्वाद देकर भगवान विष्णु अपने वाहन गरुड़ पर बैठकर बैकुंठलोक चले गए। ध्रुव 'ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय' कहता हुआ अपने घर लौट पड़ा।
ध्रुव के आगमन की खबर जैसे ही राजा उत्तानपाद को मिली, उन्होंने अपना रथ सजवाया और अपने पुत्र पर भरपूर प्यार लुटा दिया। फिर ध्रुव जैसे ही बालिग हुए, राजा उत्तानपाद ने उन्हें सिंहासन सौंप दिया और वे स्वयं वानप्रस्थ आश्रम में चले गए।
गणेश और सवारी मूषक की कहानी
बहुत समय की बात है, एक बहुत ही भयंकर असुरों का राजा था – गजमुख। वह बहुत ही शक्तिशाली बनना और धन चाहता था।
वह साथ ही सभी देवी-देवताओं को अपने वश में करना चाहता था इसलिए हमेशा भगवान् शिव से वरदान के लिए तपस्या करता था।
शिव जी से वरदान पाने के लिए वह अपना राज्य छोड़ कर जंगल में जा कर रहने लगा और शिवजी से वरदान प्राप्त करने के लिए, बिना पानी पिए भोजन खाए रातदिन तपस्या करने लगा।
कुछ साल बीत गए, शिवजी उसके अपार तप को देखकर प्रभावित हो गए और शिवजी उसके सामने प्रकट हुए।
शिवजी नें खुश हो कर उसे दैविक शक्तियाँ प्रदान किया जिससे वह बहुत शक्तिशाली बन गया।
सबसे बड़ी ताकत जो शिवजी नें उसे प्रदान किया वह यह था की उसे किसी भी शस्त्र से नहीं मारा जा सकता। असुर गजमुख को अपनी शक्तियों पर गर्व हो गया और वह अपने शक्तियों का दुर्पयोग करने लगा और देवी-देवताओं पर आक्रमण करने लगा।
मात्र शिव, विष्णु, ब्रह्मा और गणेश ही उसके आतंक से बचे हुए थे।
गजमुख चाहता था की हर कोई देवता उसकी पूजा करे। सभी देवता शिव, विष्णु और ब्रह्मा जी के शरण में पहुंचे और अपनी जीवन की रक्षा के लिए गुहार करने लगे। यह सब देख कर शिवजी नें गणेश को असुर गजमुख को यह सब करने से रोकने के लिए भेजा।
गणेश जी नें गजमुख के साथ युद्ध किया और असुर गजमुख को बुरी तरह से घायल कर दिया।
लेकिन तब भी वह नहीं माना। उस राक्षक नें स्वयं को एक मूषक के रूप में बदल लिया और गणेश जी की और आक्रमण करने के लिए दौड़ा। जैसे ही वह गणेश जी के पास पहुंचा गणेश जी कूद कर उसके ऊपर बैठ गए और गणेश जी ने गजमुख को जीवन भर के मुस में बदल दिया और अपने वाहन के रूप में जीवन भर के लिए रख लिया।
बाद में गजमुख भी अपने इस रूप से खुश हुआ और गणेश जी का प्रिय मित्र भी बन गया।
भगवान श्री कृष्ण और रुक्मिणी की भक्ति
भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा के मन में एक दिन एक विचित्र विचार आया।
उन्होंने तय किया कि वह भगवान श्रीकृष्ण को अपने गहनों से तौलेंगी।
श्रीकृष्ण ने जब यह बात सुनी तो बस मुस्कुराए, बोले कुछ नहीं।
सत्यभामा ने भगवान को तराजू के पलडे़ पर बिठा दिया। दूसरे पलड़े पर वह अपने गहने रखने लगीं।भला सत्यभामा के पास गहनों की क्या कमी थी। लेकिन श्रीकृष्ण का पलड़ा लगातार भारी ही रहा।
अपने सारे गहने रखने के बाद भी भगवान का पलड़ा नहीं उठा तो वह हारकर बैठ गईं।
तभी रुक्मिणी आ गईं। सत्यभामा ने उन्हें सारी बात बताई। रुक्मिणी तुरंत पूजा का सामान उठा लाईं। उन्होंने भगवान की पूजा की। जिस पात्र में भगवान का चरणोदक था, उसे उठाकर उन्होंने गहनों वाले पलड़ों पर रख दिया। देखते ही देखते भगवान का पलड़ा हल्का पड़ गया। ढेर सारे गहनों से जो बात नहीं बनी, वह चरणोदक के छोटे-से पात्र से बन गई। सत्यभामा यह सब आश्चर्य से देखती रहीं। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा कैसे हुआ।
तभी वहां नारद मुनि आ पहुंचे। उन्होंने समझाया, ‘भगवान की पूजा में महत्व सोने- चांदी के गहनों का नहीं, भावना का होता है।
रुक्मिणी की भक्ति और प्रेम की भावना भगवान के चरणोदक में समा गई। भक्ति और प्रेम से भारी दुनिया में कोई वस्तु नहीं है। भगवान की पूजा भक्ति-भाव से की जाती है, सोने-चांदी से नहीं। पूजा करने का ठीक ढंग भगवान से मिला देता है।
नारद की कामदेव पर विजय
एक समय की बात है, नारद ने विषय-वासनाओं पर विजय प्राप्त करने के लिए परब्रह्म ही कठोर साधना की।
वे हिमालय पर्वत के एक निर्जन स्थान में जाकर समाधिस्थ हो गए और परब्रह्म की आराधना करने लगे।
उनके इस प्रकार कठोर साथ ना करते देख देवराज इंद्र भयभीत हो गए। उन्होंने इस विषय में देव गुरु बृहस्पति से परामर्श करने का विचार किया। वे आचार्य बृहस्पति के पास पहुंचे और उनसे कहा - आचार्य! नारद हिमालय पर्वत पर बड़ी कठिन साधन कर रहे हैं।
मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि वे इतना कठोर तप किस उद्देश्य के लिए कर रहे हैं ?
देवगुरु बृहस्पति बोली - इंद्र संभव है नारद के मन में तुम्हारे सिंहासन को प्राप्त करने की लालसा पैदा हो गई हो। शायद इसलिए वे इतनी कठोर साधना कर रहे हैं।
देवगुरु की बात सुनकर इंद्र और भी भयभीत हो गए। उन्होंने आचार्य बृहस्पति से पुनः पूछा - आचर्य! यदि ऐसा हुआ तो मेरे लिए यह बहुत दुखदायी बात होगी। मुझे परामर्श दीजिये कि ऐसी हालत में मैं क्या करूं ?
आचर्य बृहस्पति बोले - इंद्र तुम तो देवों के राजा हो सर्वशक्ति सम्पन्न हो, सामर्थ्यवान हो, मैं तुम्हें इस विषय में क्या परामर्श दे सकता हूँ, तुम स्वयं ही कोई उपाय सोचो।
आप ठीक कहते हैं आचार्य जी, मुझे कोई न कोई उपाय सोचना पड़ेगा। कहते हुए इंद्र वहां से चले गए।
अपने महल में पहुंच कर उन्होंने कामदेव को बुलवाया और उनसे कहा - कामदेव! नारद हिमालय पर्वत पर एक निर्जन स्थान में बैठे कठोर तपस्या कर रहे हैं।
मैं चाहता हूँ कि तुम उनके पास जाओ और अपनी मायावी शक्ति द्वारा जैसे भी हो उनकी तपस्या भांग कर दो।
जैसी आपकी आज्ञा। कामदेव ने कहा और तत्काल उस स्थान को चल पड़ा जहाँ नारद तपस्या कर रहे थे। वहां पहुंच कर कामदेव ने अपनी मायावी शक्ति का जाल बिछाया। उसके संकेत मात्र से उस बियाबान क्षेत्र में बाहर आ गई। भांति-भांति के फूल खिल उठे। चारों ओर हरीतिमा फ़ैल गई। शीतल, मंद सुगन्धित वायु बहने लगी।
कलियों पर भँवरे गुंजन करने लगे तथा भांति-भांति के रंग बिरंगे पक्षी कलरव करने लगे। कुछ ही क्षण में स्वर्गलोक की एक अप्सरा प्रकट हुई और नारद का सामने मनोहारी नृत्य करने लगी।
उसके घुंघरुओं की मधुर ध्वनि वातावरण में गूंजने लगी।
लेकिन कामदेव का यह प्रयास व्यर्थ ही साबित हुआ। अप्सरा नृत्य करते-करते थक गई, किन्तु नारद का ध्यान नहीं टूटा।
थक-हारकर अप्सरा वापस लौट गई। तप पूरा होते ही नारद ने आंखे खोली। कामदेव ने सोचा - यदि नारद को बाद में यह पता लग गया कि मैंने उनकी तपस्या में विध्न डालने की चेष्टा की है तो वह मुझे शाप दे देंगे, उचित यही है कि मैं स्वयं ही उन्हें सच्ची बात बता दूँ।
यही सोचकर उन्होंने नारद के समक्ष पहुंचकर उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। नारद ने उन्हें आशीर्वाद देकर कहा - आओ कामदेव!
कामदेव ने कहा - अपराध क्षमा हो देवर्षि। मैंने आपकी तपस्या भांग करने का प्रयास किया था।
नारद ने पूछा - पर क्यों ? किसके आदेश से तुमने ऐसा किया ?
कामदेव बोले - देवर्षि! मुझ अंकिचन में इतनी हिम्मत नहीं जो स्वयं ही आपको तप से डिगाने का कार्य करता।
मुझे ऐसा करने को कहा गया था।
नारद बोले - किसने ऐसा करने को कहा था कामदेव ? देवराज इंद्र ने। उन्होंने ही मुझे यहां भेजा था।
कामदेव ने सच्ची बात बता दी। कामदेव की बात सुनकर नारद ने मुस्कराकर कहा - मैंने तुम्हें क्षमा किया कामदेव।
अब तुम जाओ और देबराज को बता देना कि नारद ने इच्छाओं को वश में कर लिया है। अब मैं संसार के किसी भी भौतिक आकर्षण में नहीं फंस सकता।
जान बची तो लाखों पाए। कामदेव ने सोचा और जल्दी से वहां से चला गया।
शनि देव की कथा
भगवान सूर्य ने देवी संध्या के साथ विवाह किया और तीन बच्चों का जन्म हुआ। वैश्स्व, मनु, यम (मृत्यु के भगवान) और यमुना।
हालांकि संध्या सूर्य के लिए एक पवित्र पत्नी थी, लेकिन वह सूर्य की चमकदार प्रतिभा और गर्मी को सहन नहीं कर सकी।
इसलिए, वह सूर्य की प्रतिभा का सामना करने के लिए आवश्यक शक्ति हासिल करने के लिए तपस्या करने की इच्छा भी रखतीं थीं या अपनी तपस्या के परिणामस्वरूप हासिल की गई अपनी प्रतिभा को भी आगे बढ़ाना चाहती थीं।
संध्या ने एक औरत को बनाया और उसका नाम छाया रखा और कहा- कि वह सूर्य की पत्नी के रूप में अपनी भूमिका का प्रतिनिधित्व करे और तीन बच्चों की देखभाल भी करे। हालांकि, वह सूर्य भगवान के लिए अपनी योजनाओं को किसी के सामने प्रकट नहीं करना चाहती थी इसलिये, वह तपस्या करने के लिए जंगलों में चली गयी।
चूंकि छाया बहुत साधारण रूप से मिलती-झूलती थी, सूर्य भगवान उसपे संदेह नहीं कर सके। छाया के माध्यम से सूर्य भगवान के तीन और शिशु हुए थे, जो थे मनु, शनि और तापती। इसलिए, शनि को सूर्य के पुत्र और यम का भाई कहा जाता है।
जब शनी छाया के गर्भ में थे, उसने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए चमकदार सूर्य के नीचे एक गंभीर तपस्या की। चूंकि वह पूरी तरह से भगवान शिव की प्रार्थना और पूजा में डूब गई थी, दिव्य शक्ति गर्भ के भीतर बच्चे का पोषण करती थी। इसलिए, शनी देव भगवान शिव को बहुत समर्पित थे।
इसके अलावा, जब छाया ने इतनी देर तक धधकते सूरज के नीचे तपस्या की थी, तो शनि गर्भ के अंदर काले रंग के हो गए थे। जैसे ही शनि देव जन्म हुआ, सूर्य भगवान ने उनके रंग को देखकर तुच्छ जाना और इस बात पर संदेह किया कि क्या शनि का जन्म उनके पास हुआ था। नाराज हुए शनि देव ने जब अपने पिता पर नाराज़ नजर डाली तो, शनि देव की शक्ति के कारण, सूर्य भी काले रंग में झुलस गये थे।
बाद में सूर्य ने अपनी गलती के लिए पश्चाताप किया और भगवान शिव की पूजा की, जिन्होंने उन्हें बताया कि क्यों शनि इतने काले थे। इस बात के पीछे सच्चाई को जानने के बाद, सूर्य भगवान अपने पुत्र शनि देव के साथ खुश थे और वे एक-दूसरे को बेहतर समझने लगे. शनि देव भगवान शिव के एक प्रेरक शिष्य बन गए और सभी ज्ञान उनसे सीख गए। शिव शनि देव की भक्ति और ईमानदारी से बहुत प्रसन्न थे। इसलिए उन्होंने उन्हें पृथ्वी पर पैदा हुए जीवन पर उन्हें महत्वपूर्ण ग्रह का स्थान दिया। उन्हें लोगों द्वारा किए गए कर्मों के प्रभावों को वितरित करने की जिम्मेदारी दी गई थी।
शनि देव बेहद उदार भगवान हैं, हालांकि कई लोग उन्हें क्रूर रूप में देखते हैं। वह अपने भाई यम (मृत्यु के देवता) की तरह इतने न्यायप्रिय है इसीलिए वह लोगों द्वारा किए गए कार्यों के अनुरूप सही प्रकार के परिणाम प्रदान करते हैं।
अच्छे कर्मों के साथ शनि देव की प्रार्थना करने से उनके आशीर्वाद प्राप्त होंगे और पीड़ित लोगों को कम भुगतना पड़ेगा।
राम - विवाह
राजा जनक के मंत्रियों द्वार, राम-लक्ष्मण का समाचार पाकर राजा दशरथ बड़े आनंदित हुए।
धनुर्भभ की बात सुनकर तो उनके आनंद का ठिकाना न रहा। महल में जाकर उन्होंने सब समाचार रानियों को सुनाए। रानियाँ भी फूली न समाईं। उन्होंने ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा दी।
गुरु वशिष्ठ की आज्ञा लेकर राजा दशरथ बारात की तैयार कराने लगे | हाथी, घोड़े और रथ सभी सजने लगे। छैल-छबीले सवार घोड़े नाचने लगे। गुरु वशिष्ठ और राजा दशरथ दिव्य रथों में बैठे | चतुरंगिणी सेना के साथ बारात चल पड़ी और पाँचवें दिन मिथिला जा पहुँची।
राजा जनक नें नगर के बाहर आकर बारात का स्वागत किया और भली-भाँति सजाए गए जनवासे में सबको ले जाकर यथायोग्य ठहराया।
विश्वामित्र को जब राजा दशरथ के आने का समाचार मिला तब दोनों राजकुमारों को लेकर वे जनवासे पहुँचे। राम-लक्ष्मण ने पिता के चरणों में प्रणाम किया। राजा दशरथ ने विश्वामित्र के चरण छुए और कहा-..““मुनिवर ! आपकी कृपा से ही शुभ दिन मुझे देखने को मिला है।
राजा जनक की सारी नगरी जगमग-जगमग कर रही थी। एक-एक घर, एक-एक द्वार वंदनवारों से सजा था।
चारों ओर मंगल गीत सुनाई दे रहे थे। राजमार्ग और राजमहल में दर्शकों की अपार भीड़ थी।
विवाह-मंडप मणियों और हीरों के फूल-पत्तों से सजा था। मणियों के . बने भौरे और तरह-तरह के पक्षी विवाह-मंडपर पर जड़े थे, जो हवा चलने से गूँजते-कूजते थे।
चारों राजकुमारों को लेकर गुरु वशिष्ठ के साथ महाराज दशरथ विवाह-मंडप में पधारे।
बहुमूल्य वस्त्रों और आशभूषणों से सुसज्जित चारों राजकुमारियों को लेकर राजा जनक भी मंडप में आए।
राजमहल की अनेक स्त्रियाँ भी सजकर विवाह देखने पहुँचीं। राजा जनक सीता को दिखाकर महाराज दशरथ से बोले -““राजन् ! यह मेरी बड़ी बेटी सीता है जो मुझे हल चलाते समय पृथ्वी से मिली थी।
आपके वीर पुत्र श्रीराम ने मेरा प्रण पूरा कर इसे वरण करने का अधिकार प्राप्त किया है | यह मेरी दूसरी पुत्री उर्घिला है और ये दोनों कन्याएँ मेरे छोटे भाई कुशध्वज की हैं।
बड़ी का नाम मांडवी है और छोटी का श्रुतकीर्ति। मेरी इच्छा है कि सीता के विवाह के साथ इनका भी विवाह हो जाए। लक्ष्यण के लिए उर्मिला को, भरत के लिए मांडबी को और शत्रुघ्न नए को स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करें।'”
जनक के प्रस्ताव को राजा दशरथ ने सहर्ष स्वीकार कर लिया, तब अग्नि के सामने चारों कन्याओं को अपने-अपने पतियों के हाथ में सौंपते हुए राजा जनक ने कहा कि इन कन्याओं को मैं तुम्हारे हाथ सौंपता हूँ।
ये छाया की भाँति तुम्हारे साथ रहेंगी।
तुम इनका पाणिग्रहण करो, इनकी सब तरह से रक्षा करना तुम्हारा धर्म होगा। गुरु वशिष्ठ और शतानन्द ने बेद-मंत्रों के साथ विधिवत् विवाह कराया |
तब राजा दशरथ राजकुमारों और पुत्र-वधुओं को लेकर जनवासे लौट आए। जनक ने कन्याओं और सब बरातियों को सुंदर उपहार दिए। राजा दशरथ ने भी सोने से सींग मढ़ाकर दूध
देने वाली सहसरों गायें ब्राह्मणों को दान में दीं। दूसरे दिन विश्वामित्र ने आकर राजा दशरथ को बधाई दी और सबसे विदा लेकर वे अपने आश्रम को लौट गए।
कुछ दिन तक जनक का आतिथ्य ग्रहण करने के पश्चात राजा दशरथ ब्रैट के साथ अपने नगर को लौट चले।
वे कुछ ही दूर गए होंगे कि सहसा भयंकर आंधी-सी आई और उसके साथ ही क्रोध की साक्षात मूर्ति परशुराम फरसा और धनुष बाण लिए प्रकट हो गए उन्हें देखते ही अयोध्यावासी डर के मारे अधमरे-से हो गए और राजा दशरथ के तो होश ही उड़ गए।
राम का रास्ता रोककर परशुराम बोले, राम!
शिव के पुराने धनुष को तोड़कर तुम्हारा होसला बहुत बढ़ गया है। मैं तुम्हारे अहंकार को चूर करूँगा।'”
राजा दशरथ ने गिड़गिड़ाकर परशुराम से बड़ी अनुनय-बिनय की और राम पर अनुग्रह करने की प्रार्थना की।
परशुराम ने दशरथ की बात सुनी-अनसुनी कर दी और राम से फिर बोले, “मेरे इस धनुष को चढ़ाओ, यदि न चढ़ा सके तो तुम तत्काल मेरे फरसे का आहार बनोगे।”!
यह सुनते ही राजा दशरथ तो बेसुध होकर गिर पड़े, मनस्वी राम निर्भीकता से बोले, “मेरा रूप आप देखना चाहते हैं तो देखें।”
उन्होंने परशुराम के धनुष बाण लेकर प्रत्यंचा चढ़ा दी ओर धनुष पर बाण रखकर बोले, “मैं इस बाण से आपकी तपस्या का समस्त प्रभाव अभी नष्ट करता हूं और भनार्गात से आकाश में बिचरण करने की शक्ति भी नष्ट करता हूँ।”
परशुराम हतप्रभ हो गए।
उन्होंने राम की स्तुति की और आशीर्वाद दिए और यह प्रार्थना की कि तप का फल भले ही नष्ट कर दें, परंतु मनोगति नष्ट न करें जिससे मैं महेन्द्र पर्वत पर लौट सकूँ।
श्रीराम ने उनकी बात मान ली।
परशुराम राम की प्रशंसा करते हुए तत्काल चले गए।
परशुराम के चले जाने के बाद बारात आगे बढ़ी।
बारात के पहुँचते ही अयोध्या में घर-घर आनंदोत्सब होने लगे।
गलियों में शंख और मृदंग की ध्वनि गूँज उठी। स्त्रियों ने मंगल-गान किए और फूल बरसाए। रानियों ने पुत्रों और पुत्र-वधुओं की आरती उतारी।
उस समय राजा दशरथ के भवन की शोभा देखते ही बनती थी
राजकुमार शील-गुण-संपन्न पत्नियाँ पाकर बड़े प्रसन्न थे।
सीताजी के अनुपम रूप, गुण और सेवा से श्रीराम और सास-ससुर सब प्रकार से संतुष्ट थे।
राजकुल में दिन-दिन सुख-समृद्धि की वृद्धि होने लगी। समस्त कौशल राज्य का भाग्य जग गया।
बूढा चोर और बाबा के उपदेश का परिणाम
किसी नगर में एक बूढ़ा चोर रहता था। सोलह वर्षीय उसका एक लड़का भी था। चोर जब ज्यादा बूढ़ा हो गया तो अपने बेटे को चोरी की विद्या सिखाने लगा।
कुछ ही दिनों में वह लड़का चोरी विद्या में प्रवीण हो गया। दोनों बाप बेटा आराम से जीवन व्यतीत करने लगे। एक दिन चोर ने अपने बेटे से कहा, ”देखो बेटा, साधु-संतों की बात कभी नहीं सुननी चाहिए।
अगर कहीं कोई महात्मा उपदेश देता हो तो अपने कानों में उंगली डालकर वहां से भाग जाना, समझे।
”हां बापू, समझ गया।“ एक दिन लड़के ने सोचा, क्यों न आज राजा के घर पर ही हाथ साफ कर दूं।
ऐसा सोचकर उधर ही चल पड़ा। थोड़ी दूर जाने के बाद उसने देखा कि रास्ते में बगल में कुछ लोग एकत्र होकर खड़े हैं। उसने एक आते हुए व्यक्ति से पूछा, ”उस स्थान पर इतने लोग क्यों एकत्र हुए हैं?"
उस आदमी ने उत्तर दिया, ”वहां एक महात्मा उपदेश दे रहे हैं।“ यह सुनकर उसका माथा ठनका। ‘इसका उपदेश नहीं सुनूंगा।’ ऐसा सोचकर अपने कानों में उंगली डालकर वह वहां से भाग निकला।
जैसे ही वह भीड़ के निकट पहुंचा एक पत्थर से ठोकर लगी और वह गिर गया। उस समय महात्मा जी कह रहे थे, ”कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए। जिसका नमक खाएं उसका कभी बुरा नहीं सोचना चाहिए। ऐसा करने वाले को भगवान सदा सुखी बनाए रखते हैं।“ ये दो बातें उसके कान में पड़ीं। वह झटपट उठा और कान बंद कर राजा के महल की ओर चल दिया। वहां पहुंचकर जैसे ही अंदर जाना चाहा कि उसे वहां बैठे पहरेदार ने टोका, ”अरे कहां जाते हो? तुम कौन हो?“
उसे महात्मा का उपदेश याद आया, ‘झूठ नहीं बोलना चाहिए।’ चोर ने सोचा, आज सच ही बोल कर देखें। उसने उत्तर दिया, ”मैं चोर हूं, चोरी करने जा रहा हूं।“
”अच्छा जाओ।“ उसने सोचा राजमहल का नौकर होगा। मजाक कर रहा है। चोर सच बोलकर राजमहल में प्रवेश कर गया। एक कमरे में घुसा। वहां ढेर सारा पैसा तथा जेवर देख उसका मन खुशी से भर गया। एक थैले में सब धन भर लिया और दूसरे कमरे में घुसा। वहां रसोई घर था। अनेक प्रकार का भोजन वहां रखा था। वह खाना खाने लगा। खाना खाने के बाद वह थैला उठाकर चलने लगा कि तभी फिर महात्मा का उपदेश याद आया, ‘जिसका नमक खाओ, उसका बुरा मत सोचो।’ उसने अपने मन में कहा, ‘खाना खाया उसमें नमक भी था। इसका बुरा नहीं सोचना चाहिए।’ इतना सोचकर, थैला वहीं रख वह वापस चल पड़ा। पहरेदार ने फिर पूछा, ”क्या हुआ, चोरी क्यों नहीं की?“
”देखिए जिसका नमक खाया है, उसका बुरा नहीं सोचना चाहिए। मैंने राजा का नमक खाया है, इसलिए चोरी का माल नहीं लाया। वहीं रसोई घर में छोड़ आया।“ इतना कहकर वह वहां से चल पड़ा।
उधर रसोइए ने शोर मचाया, ”पकड़ो, पकड़ों चोर भागा जा रहा है।“ पहरेदार ने चोर को पकड़कर दरबार में उपस्थित किया।
राजा के पूछने पर उसने बताया कि एक महात्मा के द्धारा दिए गए उपदेश के मुताबिक मैंने पहरेदार के पूछने पर अपने को चोर बताया क्योंकि मैं चोरी करने आया था। आपका धन चुराया लेकिन आपका खाना भी खाया, जिसमें नमक मिला था।
इसीलिए आपके प्रति बुरा व्यवहार नहीं किया और धन छोड़कर भागा।
उसके उत्तर पर राजा बहुत खुश हुआ और उसे अपने दरबार में नौकरी दे दी। वह दो-चार दिन घर नहीं गया तो उसके बाप को चिंता हुई कि बेटा पकड़ लिया गया-लेकिन चार दिन के बाद लड़का आया तो बाप अचंभित रह गया अपने बेटे को अच्छे वस्त्रों में देखकर।
लड़का बोला- ”बापू जी, आप तो कहते थे कि किसी साधु संत की बात मत सुनो।
लेकिन मैंने एक महात्मा की बात सुनी और उसी के मुताबिक काम किया तो देखिए सच्चाई का फल, मुझे राजमहल में अच्छी नौकरी मिल गई।“
शबरी की कथा
शबरी का वास्तविक नाम श्रमणा था। वह श्री राम की अनन्य भक्त थी। शबरी का जन्म भील जाति में हुआ था। जब उसका विवाह होने वाला था तो अगले दिन भोजन के लिए काफी बकरियों की बलि दी जानी थी।
यह बात पता लगते ही उसने अपनी माता से इस जीव हत्या का रोकने का अनुरोध किया।
पर उसकी माता ने बताया कि वे भील हैं और यह उनके यहां का नियम है कि बारात का स्वागत इसी भोजन से होता है।
वह यह बात सहन नहीं कर सकी। शबरी नहीं चाहती थी कि उसके कारण इतने सारे जीवों की हत्या हो।अतः वह चुप चाप रात के समय घर छोड़ कर जंगलों की और निकल पड़ी।
जंगल में वह ऋषि-मुनियों की कुटिया पर गयी और आश्रय मांगा किन्तु भील जाति की होने के कारण सबने उसे दुत्कार दिया।
आखिर में मतंग ऋषि ने उसे अपने आश्रम में रहने के लिए आश्रय दिया। शबरी अपने व्यवहार और कार्य−कुशलता से सभी आश्रमवासियों की प्रिय बन गई।
मतंग ऋषि ने अपनी देह त्याग के समय उसे बताया कि भगवान राम एक दिन उसकी कुटिया में आएंगे! वह उनकी प्रतिक्षा करे !
वही उसका उद्धार करेंगे। दिन बीतते रहे। शबरी रोज सारे मार्ग और कुटिया की सफाई करती और प्रभु राम की प्रतीक्षा करती।
ऐसे करते करते वह बूढी हो चली, पर प्रतिक्षा करना नही छोडी क्यूंकि गुरु के वचन जो थे !
शबरी ने सारा जीवन श्री राम की प्रतीक्षा की।
अंत मे शबरी की प्रतिक्षा खत्म हुई और भगवान श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मण के साथ माता सीता की खोज करते हु्ए मतंग ऋषि के आश्रम में जा पहुंचे।
शबरी ने उन्हें पहचान लिया। उसने प्रभु श्री रामचन्द्र जी का आदर सत्कार किया।
शबरी भागकर कंद−मूल लेकर आई। कंद−मूलों के साथ वह कुछ जंगली बेर भी लाई थी। कंद−मूलों को उसने भगवान को अर्पण कर दिया। पर बेरों को देने का साहस नहीं कर पा रही थी। कहीं बेर ख़राब और खट्टे न निकलें, इस बात का उसे भय था।
उसने बेरों को चखना आरंभ कर दिया। अच्छे और मीठे बेर वह बिना किसी संकोच के श्रीराम को देने लगी।
श्रीराम उसकी सरलता पर मुग्ध थे।
उन्होंने बड़े प्रेम से जूठे बेर खाए। शबरी के झूठे बेर श्रीराम को खाते देख लक्ष्मण को बहुत आश्चर्य हुआ।परन्तु श्री राम शबरी की भक्ति और सरलता पर पूर्ण रूप से मुग्ध थे।
श्रीराम की कृपा से शबरी का उसी समय उद्धार हो गया।
अभिमान त्यागो, सौम्य बनो
एक बार देवर्षि नारद ज्ञान का प्रचार करते हुए किसी सघन वन में जा पहुँचे।
वहाँ उन्होंने एक बहुत बड़ी घनी छाया वाला सेमल का वृक्ष देखा। उसकी छाया में विश्राम करने का विचार कर नारद उसके नीचे बैठ गए।
नारद जी को उसकी शीतल छाया में बड़ा आनन्द मिला।
वे उसके वैभव की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। उन्होंने सेमल के वृक्ष से पूछा-'वृक्षराज! तुम्हारा इतना बड़ा वैभव किस प्रकार सुस्थिर रहता है।
पवन तुम्हें गिराता क्यों नहीं?'
सेमल के वृक्ष ने हॅंसते हुए कहा- देवर्षि! पवन का क्या सामर्थ्य कि वह मेरा बाल भी बांका कर सके। वह किसी प्रकार भी मुझे नहीं गिरा सकता।'
नारद जी को लगा कि सेमल अभिमान के नशे में ऎसे बचन बोल रहा है।
उन्हें उसका यह उत्तर उचित प्रतीत न हुआ। झुंझलाते हुए वे सुरलोक चले गए। सुरपुर में जाकर नारद ने पवन देव से कहा-'अमुक वृक्ष अभिमान पूर्वक दर्प-वचन बोलता हुआ आपकी निंदा करता है, इसलिए उसका अभिमान दूर करना चाहिए।'
पवन देव को अपनी निंदा करने वाले सेमल के उस वृक्ष पर बहुत क्रोध आया।
वह उस वृक्ष को उखाड़ फेंकने के लिए बड़े प्रबल प्रवाह के साथ आंधी तूफान की तरह चल दिए।
सेमल का वृक्ष बड़ा तपस्वी, परोपकारी और ज्ञानी था। उसे आने वाले संकट का बोध हो गया।
उसने तुरंत स्वयं को बचाने का उपाय कर लिया।
उसने अपने सारे पत्ते झाड़ डाले और ठूंठ की तरह खड़ा हो गया। पवन ने पूरी शक्ति से उसे उखाड़ने की चेष्टा की पर वह ठूंठ का कुछ न बिगाड़ सका।
अंत में निराश होकर पवन देव वापस लौट गए।
कुछ दिन बाद नारद जी उस वृक्ष की दशा देखने के लिए फिर उसी वन में पहुँचे।
उन्होंने देखा कि वृक्ष हरा-भरा ज्यों का त्यों खड़ा है।
नारद जी को बड़ा आश्चर्य हुआ।
उन्होंने वृक्ष से पूछा-'पवन देव ने तुम्हें उखाड़ फेंकने की पूरी शक्ति से कोशिश की, पर तुम तो ज्यों के त्यों खड़े हो। इसका क्या रहस्य है?'
वृक्ष ने देवर्षि को प्रणाम किया और नम्रतापूर्वक निवेदन किया-'देवर्षि! मेरे पास इतना वैभव है फिर भी मैं इसके मोह में बंधा नहीं हूँ।
लोक सेवा के लिए मैंने इतने पत्ते धारण किए हुए हैं, परन्तु जब-जब जरूरी समझता हूँ, अपने वैभव को बिना हिचकिचाहट के त्याग देता हूँ और ठूंठ बन जाता हूँ।
मुझे अपने वैभव पर गर्व नहीं है, वरन ठूंठ होने का अभिमान है। इसीलिए मैंने पवन देव की उपेक्षा की।
वे कर्म को श्रेष्ठ बता रहे थे। आप देख रहे हैं कि उसी निर्लिप्त कर्म योग के कारण मैं प्रचण्ड टक्कर सहता हुआ भी पहले की भाँति खड़ा हूँ।
नारद जी समझ गए कि संसार में वैभव रखना, धनवान होना बुरी बात नहीं है।
इससे तो बहुत-से शुभ कार्य हो सकते हैं। बुराई तो धन के अभिमान में डूब जाने और उससे मोह करने में है।
यदि कोई व्यक्ति धनी होते हुए भी मन से पवित्र रहे, तो एक प्रकार से साधु ही है। जल में कमल की तरह निर्लिप्त रहने वाले ऎसे कर्मयोगी साधु के लिए घर ही तपोभूमि है।
नारद, पार्वत और श्रीजय
देवर्षि नारद और उनके भांजे पार्वत को तीनों लोकों में भ्रमण करने का सामर्थ्य था, एक बार इस मृत्युलोक पर उतर आए और मजे से घूमने-फिरने लगे।
दोनों ने यह समझौता कर लिया था कि वे अपने-अपने मन की अच्छी या बुरी कामनाएं एक दूसरे को बतला देंगे।
घूमते-फिरते वे दोनों एक बार राजा श्रीजय के दरबार में पहुँच गए। उनका यथोचित सत्कार हुआ और उन्होंने वहाँ कुछ दिनों तक आराम किया। राजा ने अपनी पुत्री सुकुमारी को उनकी सेवा पर नियुक्त किया था।
कुछ समय बाद देवर्षि नारद सुकुमारी पर आसक्त हो गए और उससे विवाह की कामना की। किन्तु अपने निश्चय के अनुसार इसकी सूचना अपने भांजे को नहीं दी। जो हो, पार्वत को अपने मामा का चेहरा देखकर ही उनकी मनोकामना का पता चल गया। उसने क्रोध में आकर नारद को शाप दे दिया कि उसकी सूरत बंदर जैसी हो जाए। पार्वत ने कहा- 'सुकुमारी तुमसे विवाह तो कर लेगी किन्तु उसको तुम बंदर जैसे नजर आओगे, दूसरों को तुम्हारा असली रूप नजर आया करेगा।'
नारद को और अधिक क्रोध आया कि एक ऎसे मनुष्य ने जो उसके पुत्र समान है, उसे शाप दे दिया कि वह अपनी इच्छा से स्वर्गलोक में नहीं जा पाएगा। इस प्रकार क्रोध में भरे मामा-भांजा एक दूसरे से अलग हो गए।
जब राजा श्रीजय को सुकुमारी के बारे में नारद की ऎसी इच्छा का ज्ञान हुआ, तो वह नारद जी जैसे मुनि को अपना दामाद बनाने को तैयार हो गए और सुकुमारी का विवाह उनसे कर दिया। कुछ काल बाद, पार्वत अपने मामा नारद के पास गए और उनसे अपना शाप वापस लेने को कहा।
नारद ने क्रोध भरा उत्तर दिया कि पार्वत छोटा है, अतः पहले उसे ही अपना शाप वापस लेना चाहिए। अंत में दोनों ने अपने-अपने शाप वापस लेकर मेल-मिलाप कर लिया।
श्रीजय ने उनसे यह वर मांगा कि उसे पुत्र प्राप्त हो। राजा बड़ा लोभी था। उसने यह वर भी मांगा कि उसके पुत्र के शरीर से जो भी मल-मूत्र निकले वह सोना होता चला जाए। नारद ने यह वर पार्वत से देने को कहा। पार्वत ने वर दे दिया।
समय पाकर राजा श्रीजय के घर पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसने पिता का घर सोने से भर दिया। राजा के घर में ऎसा सोना पैदा करने वाले पुत्र की खबर चारों ओर फैल गई। चोर उस लड़के को उठा ले गए और यह सोचकर कि उसके शरीर से बहुत-सा सोना निकलेगा, उसे मार डाला। पर जब शरीर से सोना न मिला तो उसे उठाकर फेंक दिया और भाग गए।
राजा ने अपने पुत्र का शरीर देखकर बहुत अधिक विलाप किया। तब नारद और पार्वत ने राजा को सोलह महान पुरुषॊं की कहानियां सुनाई, जो अपने काल के भरे उत्थान में मर गए थे। फिर श्रीजय से कहा-'यदि ऎसे नामी मनुष्य मर सकते हैं, तो तुम्हारे बेटे के मर जाने में कौन-सा अनर्थ हो गया? वह तो उन पुरुषॊं के सामने तुच्छ ही था।'
फिर भी राजा पर दया करके उन्होंने उसका पुत्र पुनर्जीवित कर दिया।
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